साहित्येतिहास में देवकीनंदन खत्री का स्थान
हिंदी साहित्येतिहास में देवकीनंदन खत्री का स्थान
(संदर्भ - आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के हिंदी साहित्येतिहास)
-- सुनील कुमार साव
(संदर्भ - आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के हिंदी साहित्येतिहास)
-- सुनील कुमार साव
हिंदीसाहित्येतिहास में देवकीनंदन खत्री को वह स्थान नहीं मिला जिसके वे अधिकारी
थे ।
उन्हें आरंभ से ही उपेक्षा की दृष्टि से देखा गया । उनके साहित्य को
बाजारू , तिलिस्मी ,
मनोरंजक आदि कहकर उपेक्षित किया गया । उनके गुणों को भी अवगुण बना दिया गया ;
जिसका उल्लेख करते हुए , मधुरेश लिखते हैं – ‘‘यह स्थिति भी अपने में पर्याप्त
विरोधाभासपूर्ण लगती है कि जिस तिलिस्मी-ऐयारी उपन्यास की नयी धारा के सूत्रपात के कारण उन्हें एक नये युग के प्रवर्तन का श्रेय मिलता है , उसी कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे आलोचक देवकीनंदन खत्री की इन रचनाओं को साहित्यिक रचनाओं की कोटि में रखने को भी तैयार नहीं थे ।’’1 ऐसे में साहित्येतिहासकार जितना नकारात्मक दृष्टि अपनाने लगा , लोक और साहित्य के बीच उतनी ही दूरी बढ़ती गई ।
‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) ने मात्र हिंदी भाषा , गद्य और पाठक-वर्ग का ही प्रर्वतन नहीं किया , बल्कि नये युग के नये साहित्य का भी प्रर्वतन किया । जिसका उल्लेख करते हुए , प्रदीप सक्सेना लिखते हैं –‘‘वह केवल मनोरंजन का साहित्य नहीं है । वह केवल तिलिस्म का मामला नहीं है और न केवल भाषा का मामला है । वह तो नए समाज के गर्भ से जन्म लेते नए साहित्य की ताजी हवा का मामला है , जिसका सौन्दर्यशास्त्र अभी बना नहीं था । मेरा प्रस्ताव है लाखों लोगों को खींच लेने की शक्ति महज भाषा में नहीं होती , उस वस्तु में होती है , भाषा जिसका संवहन करती है । वह वर्णन-शक्ति उन आदर्शों , स्वप्नों , इच्छाओं और उद्देश्यों से पैदा होती है जो उस दौर को ठीक-ठीक व्यक्त करते हैं । महान प्रतिभाएँ ही ऐसा चमत्कार कर सकती हैं । ’’2
ऐसे में हिंदी साहित्येतिहासकारों के उन मानदण्डों की जाँच आवश्यक हो जाती है , जिनके आधार पर देवकीनंदन खत्री जैसे युग प्रर्वतक जीवनपर्यंत यथोचित मान नहीं पाते ; वही भारतेंदु की मृत्यु के बाद भी उनके साहित्य प्रर्वतन की गति मंद नहीं होती । ऐसे में लगता है कि लोकप्रिय देवकीनंदन खत्री को दबाकर अपेक्षाकृत अधिक विद्वत-प्रिय भारतेंदु के महत्व को बढ़या गया है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
हिंदी साहित्येतिहास लेखन के क्रम में अब तक किसी ने देवकीनंदन खत्री को यथोचित महत्व नहीं दिया , फलस्वरूप काल विभाजन और नामकरण की दृष्टि से भी उनकी उपेक्षा होती रही है । इसके कई कारण हैं ; जिनमें सर्वप्रमुख आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि साहित्येतिहासकारों की उपेक्षा तथा अपेक्षा को बिना समझे अंधानुकरण करने की प्रवृति हैं । जिसकी सच्चाई को सामने लाना अत्यंत आवश्यक है । जिससे स्पष्ट हो सके कि आखिर वे कौन से कारण थे , जिनके आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल को लोकरंजक तथा लोकप्रिय उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की ही नहीं, बल्कि लोक की भावनाओं की भी उपेक्षा करनी पड़ी ; जिसे समझे बिना देवकीनंदन खत्री के महत्व को नहीं समझा जा सकता है ।
जैसा कि हम जानते है हिंदी साहित्येतिहास का प्रथम व्यवस्थित काल विभाजन और नामकरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ही किया था । उन्होंने आधुनिक काल को गद्यकाल नाम दिया । जिसे उन्होंने तीन भागों में विभाजित किया था – प्रथम उत्थान , द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान । जिसे बाद के साहित्येतिहासकारों ने भारतेंदु युग , द्विवेदी युग तथा छायावाद के नाम से संबोधित किया , किंतु आधार आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ही रहा ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने साहित्येतिहास में कालविभाजन और नामकरण के लिए ‘ग्रंथों की प्रचुरता’ तथा ‘ग्रंथों की प्रसिद्धि’ को महत्वपूर्ण मानदंड मानते हैं । उन्होंने लिखा है - ‘’जिस कालविभाग के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ी है , वह एक अलग काल माना गया है और उसका नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरूप के अनुसार किया गया है। ....... दूसरी बात है ‘ग्रंथों की प्रसिद्धि’ । किसी काल के भीतर जिस एक ही ढंग के बहुत अधिक ग्रंथ प्रसिद्ध चले आते हैं , उस ढंग की रचना उस काल के लक्षण के अंतर्गत मानी जाएगी , चाहे और दूसरे ढंग की अप्रसिद्ध और साधारण कोटि की बहुत सी पुस्तकें भी इधर उधर कोंनों में पड़ी मिल जाया करें । प्रसिद्धि भी किसी काल की लोकप्रवृत्ति की प्रतिध्वनि है । सारांश यह है कि इन दोनों बातों की ओर ध्यान रखकर कालविभागों का नामकरण किया गया है ।’’3 जिसे हम उनके साहित्येतिहास के कालविभाजन और नामकरण में प्रयुक्त देख सकतें हैं ।
‘ग्रंथों की प्रचुरता’ तथा ‘ग्रंथों की प्रसिद्धि’ ही कालविभाजन और नामकरण का आधार है तो फिर ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ की उपेक्षा क्यों हुई ? क्या उस युग में ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ से अधिक किसी अन्य ग्रंथ का प्रकाशन हुआ था ? या उस युग में ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ से अधिक किसी अन्य ग्रंथ को प्रसिद्धि प्राप्त थी । इसका उत्तर देते हुए , गोपाल राय लिखते हैं - ‘’चंद्रकांता प्रथम बार सन् 1891 ई. में प्रकाशित हुईं । आरंभ में यह पुस्तक डिमाई आकार में मुद्रित हुईं थी , जिसका छठा संस्करण 1904 ई. में प्रकाशित हुआ । उस जमाने में जब हिंदी पाठकों की संख्या अत्यल्प थी , लगभग 14 वर्ष के भीतर चंद्रकांता के छह संस्करणों का प्रकाशित होना ; जबकि किशोरी लाल गोस्वामी आदि समकालीन उपन्यासकारों की पुस्तकें 14 -14 वर्ष तक पाठकों के अनुत्साह से अप्रकाशित रह गयी थी , उसकी लोकप्रियता का असंदिग्ध प्रमाण है । परवर्ती काल में भी चंद्रकांता की लोकप्रियता अबाधित रही । सन् 1961 ई. तक चंद्रकांता के कुल मिलाकर 45 संस्करण प्रकाशित हो चुके थे । यदि प्रत्येक संस्करण में मुद्रित प्रतियों की संख्या औसत रूप में 4000 भी मान ली जाए तो चंद्रकांता की अब तक लगभग 1 लाख 80 हजार प्रतियाँ मुद्रित और पाठकों के बीच वितरित हो चुकी है । हिंदी की किसी अन्य पुस्तक को यह सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ हैं । ’’4 तभी तो उनके पाठकों की संख्या अब भी लगातार बढ़ रही है ।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ अपने युग में ही नहीं , उसके बाद भी सर्वाधिक प्रकाशित और प्रसिद्ध रचना रही । ऐसे में देवकीनंदन खत्री के नाम पर उस कालखण्ड का नामकरण क्यों नहीं किया गया ? जबकि भारतेंदु की म़ृत्यु के बाद और सरस्वती पत्रिका के प्रकाशन के पहले - 1888 से 1900 तक के समय में देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों - ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ के अलावा जनता में साहित्य-चर्चा का कोई अन्य विषय ही नहीं था । तभी तो ज्ञानचंद्र जैन ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ की लोकप्रियता की तुलना ‘रामचरित मानस’ से करते हुए , लिखते हैं - ‘‘दोनों उपन्यास के जितने संस्करण हुए उतने गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस को छोड़ हिंदी में और किसी पुस्तक के नहीं हुए ।’’5
आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने साहित्य में लोकतत्व को बहुत महत्व देते हैं । यही कारण है कि उनका साहित्य का इतिहास लोक की भावनावों का संवहन कर सकी । जिसे स्पष्ट करते हुए , उन्होंने लिखा है कि -‘‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है , तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है । आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है ।’’6 आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोकवादी इतिहासद़ृष्टि की सराहना सारे हिंदी प्रेमी करते हैं । तभी तो मैनेजर पांडेय जैसे आलोचक को भी लिखना पड़ता हैं कि – ‘‘उनके अनुसार रचनाओं की श्रेष्ठता की कसौटी लोकरुचि है और उनके स्थायित्व का प्रमाण जनता में लोकप्रियता । यह आचार्य शुक्ल की लोकवादी इतिहासद़ृष्टि का एक प्रमाण हैं ।’’7 हम जानते है कि हिंदी भाषी जनता में ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ की रचना काल से अब तक उसका स्थायित्व बना हुआ हैं । फिर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जनता की चित्तवृत्ति में संचित ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ के प्रतिबिम्ब को क्यों नहीं स्वीकार किया ? जब जनता की चित्तवृत्ति ने देवकीनंदन खत्री को निर्विवाद रूप से अपनाया था ; तो देवकीनंदन खत्री के नाम पर उस कालखंड का नामकरण क्यों नहीं किया गया ?
ऐसे में यह भी नहीं कहा जा सकता है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल देवकीनंदन खत्री के उपरोक्त गुणों से अपरिचित थे , क्योंकि उन्होंने स्वयं ही लिखा है - ‘‘पहले मौलिक उपन्यास लेखक , जिनके उपन्यासों की सर्वसाधारण में धूम हुई , काशी के बाबू देवकीनंदन खत्री थे । ..... उक्त काल के आरंभ में तो ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ नामक इनके ऐयारी के उपन्यासों की चर्चा चारों ओर इतनी फैली कि जो लोग हिंदी की किताबें नहीं पढ़ते थे वे भी इन नामों से परिचित हो गए । ..... ‘चंद्रकांता’ पढ़कर वे हिंदी की और प्रकार की साहित्यिक पुस्तकें भी पढ़ चले और अभ्यास हो जाने पर कुछ लिखने भी लगे ।’’8 फिर किस आधार पर उन्होंने देवकीनंदन खत्री के नाम पर उक्त कालखण्ड का नामकरण भी नहीं किया और उन्हें साहित्य की कोटि से भी बाहर निकाल दिया । इसका कारण स्पष्ट करते हुए , उन्होंने लिखा है - ‘‘इन उपन्यासों का लक्ष्य केवल घटनावैचित्र्य रहा ; रससंचार , भावविभूति या चरित्रचित्रण नहीं । ये वास्तव में घटनाप्रधान कथानक या किस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं , इससे ये साहित्यकोटि में नहीं आते ।’’9
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की असाहित्यि कोटि की सार्थकता पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर आज तक के कई आलोचकों ने प्रश्न चिह्न लगा दिया है । देवकीनंदन खत्री के ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ के मूल्यांकन के संदर्भ में यह चुनौती प्रदीप सक्सेना ने प्रस्तुत की है । उन्होंने लिखा है – ‘‘ शुक्लजी ने यदि रस को ही आधार बनाया होता तो यह कृति तो अद्भुत और भयानक रस का प्रशान्त महासागर तो निकल ही आती कम-से-कम । .... रस संचार के मारे तो लोगों को लाईनों में खड़ा होना मंजूर था । बिना बाँधे फर्मे ले जाना और एक-एक शब्द चाट जाना मंजूर था । बाप और बेटों का अलग-अलग छिपकर पढ़ना जायज था । यह अलग बात थी कि शुक्लजी का इच्छित रस न हो , और वीर और श्रृंगार की भी छटाएं उपलब्ध हैं । भाव विभूति पर तो पन्ने के पन्ने रँगें जा सकते हैं और चरित्र-चित्रण मे तो उस दौर का कोई भी उपन्यास इसका सामना नहीं कर सकता ।’’10 और रही बात जीवन के विविध पक्षों के अभाव और घटनावैचित्र्य का ; तो हम स्वयं जानते है कि सूरदास के संदर्भ में जीवन के विविध पक्षों वाला आधार , आधारहीन हो जाता है । रही बात घटनावैचित्र्य की , तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने घटनावैचित्र्य से होनेवाली हानि का उल्लेख नहीं किया है । जिसका कारण बताते हुए , प्रदीप सक्सेना लिखते हैं – ‘‘ दरअसल शुक्लजी के पास इससे अधिक के लिए अवकाश न था । रहस्यवाद के प्रति उनके मन में एक ऐसी कटु-सतर्कता लगातार विराजती रही थी कि कहीं हो तो सर कलम कर दें । फिर तिलिस्म भेदकर अंतर्वस्तु के खजाने तक पहुँचने का प्रश्न ही नहीं था।’’11
यह पहला मौका नहीं है जब आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किसी रचना को असाहित्यिक कहा हो , देवकीनंदन खत्री से पहले भी उन्होंने सिद्ध-ऩाथ साहित्य तथा कबीर आदि ज्ञानमार्गी शाखा के साहित्यकारों को सांप्रदायिक कहकर उन्हें साहित्य की कोटि से भी बाहर निकाल दिया । सिद्ध-ऩाथ साहित्य को बाहर निकालने का कारण स्पष्ट करते हुए , वे लिखते है - ‘‘ वे सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं , अत: शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं ।’’12 आगे कबीर आदि ज्ञानमार्गी शाखा के साहित्यकारों की सांप्रदायिकता को स्पष्ट करते हुए , वे लिखते है - ‘‘इस शाखा की रचनाएँ साहित्यिक नहीं हैं - फुटकल दोहों या पदों के रूप मे हैं जिनकी भाषा और शैली अधिकतर अव्यवस्थित और उटपटांग है ।’’13 हम जानते है कि ‘सिद्ध साहित्य’ पर धर्मवीर भारती तथा ‘नाथ संप्रदाय’ और ‘कबीर’ पर हजारी प्रसाद द्विवेदी के पुस्तकों के प्रकाशन के बाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल के दृष्टिकोण की सीमा स्पष्ट हो गयी , फलस्वरुप अब सिद्ध-ऩाथ साहित्य तथा कबीर आदि ज्ञानमार्गी शाखा के साहित्यकारों को कोई सांप्रदायिक और असाहित्यक नहीं मानता है । तत्पश्चात् उन्हें यथोचित मान भी मिला । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर को ज्ञानमार्गी शाखा का प्रर्वतक मान लिया था , परंतु सिद्ध-ऩाथ साहित्य के साथ वे न्याय नहीं कर पाये थे ; जिसे राहुल सांकृत्यायन ने आदिकाल को ‘सिद्ध-सामंत काल’ नामकरण कर किया तथा बाद के साहित्येतिहासकारों ने इसे स्वीकार कर किया । देवकीनंदन खत्री के संदर्भ में यह काम प्रदीप सक्सेना द्वारा रचित ‘तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र’ पुस्तक के प्रकाशन से हुआ ।
इस प्रकार यह कहा जा सकता हैं कि एक साहित्येतिहासकार जिसने लोक की भावना को ही अपने साहित्येतिहास का आधार बनाया था , कितुं वही उस आधार का पालन न कर सकें , उनसे कुछ स्थानों पर चुक हो गयी ; पर ऐसा नहीं है कि उन्हें अपनी भूल का एहसास न हो । उन्हें पता था कि समकालीन लेखकों पर लिखना कितना जोखिम का काम है । जिसे स्पष्ट करते हुए , वे लिखते है - ‘‘आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है । इसलिये उसके प्रसार का वर्णन विशेष विस्तार के साथ करना पड़ा है । मेरा विचार इस थोड़े से काल के बीच हमारे साहित्य के भीतर जितनी अनेकरूपता का विकास हुआ है , उनको आरंभ तक लाकर उसमें आगे की प्रवृत्तियों का सामान्य और संक्षिप्त उल्लेख करके ही छोड़ देने का था क्योंकि वर्तमान लेखकों और कवियों के संबंध में कुछ लिखना अपने सिर एक बला मोल लेना ही समझ पड़ता था । पर जी न माना । वर्तमान सहयोगियों तथा उनकी अमूल्य कृतियों का उल्लेख भी थोड़े बहुत विवेचन के साथ डरते डरते किया गया । ’’14 साफ है डरते डरते किया गया कार्य सही नहीं होता और डर का कारण यथोचित आलोच्य कृतियों के अभाव में सही मूल्यांकन का न हो पाना था । आचार्य रामचंद्र शुक्ल की विशेषता इसमें है कि उन्हें केवल अपनी सीमित सामग्री का ही बोध नहीं था बल्कि अपनी सीमाओं का भी ज्ञान था । तभी तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास का विकल्प नहीं है ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद कई साहित्येतिहास लिखे गए , पर नवीन साहित्येतिहासदृष्टि के अभाव में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ही कमोवेश अनुकरण होता रहा । ऐसे ही समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी परंपराओं की निरंतरता की साहित्येतिहासदृष्टि के साथ हिंदी साहित्येतिहास लेखन का कार्य आरंभ करते हैं । जिसका उल्लेख करते हुए , मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं - ‘‘इतिहासलेखन का नयापन विस्मृत परंपराओं की खोज करने , परंपराओं को पुनर्व्यवस्थित करने और उनका नया मूल्यांकन करने में प्रकट होता है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने यह महत्वपूर्ण काम किया है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहासलेखन का प्रयास परंपरा के पुनर्मूल्यांकन और नए विकास की संभावनओं की ओर संकेत करने के कारण ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद हिंदी साहित्य के इतिहासलेखन की दिशा में एक सार्थक और नया प्रयास माना जाता है ।’’15 तभी तो हिंदी साहित्येतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम आता है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सामने कालविभाजन और नामकरण को व्यवस्थित करने की चुनौती थी , तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के समक्ष उसे विसंगति मुक्त करने की ; जिसे उन्होंने यथा संभव किया । यही कारण है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल तो स्वीकार किया , पर वीरगाथा काल की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया । जिसे स्पष्ट करते हुए , वे लिखते हैं – ‘‘ कालप्रवृत्ति का निर्णय प्राप्त ग्रंथों की संख्या द्वारा नहीं निर्णीत हो सकता , बल्कि उस काल की मुख्य प्रेरणादायक वस्तु के आधार पर ही हो सकता है । प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणासंचारक तत्व ही साहित्यिक काल के नामकरण का उपयुक्त निर्णायक हो सकता है ।’’16 फलस्वरूप आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘आदिकाल’ को साहित्यिक दृष्टि से वीरगाथा काल कहने की अपेक्षा ‘सिद्ध-सामंत काल’ कहना अधिक न्यायसंगत माना ।
अगर प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणासंचारक तत्व के ही आधार पर साहित्यिक काल के नामकरण का निर्धारण किया जा सकता है । तो देवकीनंदन खत्री के ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) के प्रभाव तथा प्रेरणा की उपेक्षा क्यों हुईं ? क्या उस काल में ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’ से अधिक प्रेरणादायक साहित्य था ? या हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी भाषा पढ़ने , उसके पाठक बनने की प्रेरणा का महत्व ही नहीं है , क्योंकि हिंदी साहित्य इतिहास में यह रोज़ होने वाली घटना है । जिस हिंदी गद्य को स्थापित करने में भारतेंदु और उनका मंडल असफल रहा , उसे देवकीनंदन खत्री ने किया । जिसका उल्लेख करते हुए , वे लिखते हैं – ‘‘ उस समय हिंदी के लेखक थे ; परंतु ग्राहक न थे । .....मेरे बहुत से मित्र हिंदुओं की अकृतज्ञता का यों वर्णन करते हैं कि उन्होंने हरिश्चंद्रजी जैसे देश हितैषी पुरूष की उत्तम पुस्तकें नहीं खरीदी । .....मुझे इस बात का बड़ा हर्ष है कि मैं इस विषय में सफल हुआ और मुझे ग्राहकों की अच्छी श्रेणी मिल गई । यह बात बहुत से सज्जनों पर प्रकट है कि ‘चंद्रकांता’ पढ़ने के लिए बहुत से पुरूष नागरी की वर्णमाला सीखते हैं और जिनको कभी हिंदी सीखना न था उन लोगों ने भी इसके लिए सीखी ।’’17 ऐसे में देवकीनंदन खत्री के योगदान को कम नहीं मानना चाहिए । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का आचार्य रामचंद्र शुक्ल से दूसरा मतभेद मध्यकाल काल को लेकर है ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भक्तिकाल को मध्यकाल तथा ‘अपने पौरूष से हताश जाति की अभिव्यक्ति’ मानने से अस्वीकार करते हैं । वे भक्ति काव्य को जन-आंदोलन का काव्य मानते है । जिसका कारण बताते हुए , उन्होंने लिखा है – ‘‘ प्रथम तो यह जन-आंदोलन की अभिव्यक्ति का साहित्य है , इसलिए इसमें उन रूढ़ियों और परंपराओं की चर्चा नहीं मिलती , जो शास्त्रीयता से पुष्ट साहित्य में साधारणत: मिल जाया करती है । दूसरे , जिस प्राचीन साहित्य के साथ इनकी तुलना की जाती है , उसके बनने से लेकर इस साहित्य के बनने के काल के बीच जो प्राय: आधी सहस्त्रावधि का व्यवधान पड़ता है , उस व्यवधानयुग के विचारों के विकास के अध्धयन की चेष्टा नहीं की जाती । यदि इस व्यवधानकालिक साहित्य के उस अंश को देखें , जिसका संबंध पंडितजनों से नहीं बल्कि जन-साधारण से था , तो कोई संदेह नहीं रह जाएगा कि यह साहित्य इस व्यवधानकालिक जन-साहित्य का ही क्रम विकास है ।’’18 यही बात देवकीनंदन खत्री के साहित्य के संबंध में भी कहा जा सकता है क्योंकि ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) में भी सामंती रूढ़ियों और परंपराओं के ढहने और यथार्थवाद के प्रथमोत्थान की कथा नज़र आती है । दूसरे , जिस ‘तिलिस्मे-होशरूबा’ आदि रचनाओं से ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) की तुलना की जाती है । उन दोनों के रचनाकाल तथा विचारों के विकास क्रम में बहुत अंतर है । यही नहीं , स्वयं ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) के रचनाकाल तथा विचारों के विकास क्रम में बहुत अंतर है । जिसे समझे बिना देवकीनंदन खत्री के साहित्य का मूल्यांकन अर्थहीन होगा ।
ऐसे में यह भी नहीं कहा जा सकता कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी देवकीनंदन खत्री के प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणासंचारक तत्व से अपरिचित थें , क्योंकि उन्होंने स्वयं लिखा है – ‘‘उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में और बीसवीं शताब्दी के आरंभ में हिंदी में सबसे अधिक प्रभावशाली कथा-साहित्य ऐय्यारी और तिलस्मी उपन्यासों का था । देवकीनंदन खत्री के दो उपन्यास चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति उन दिनों बहुत लोकप्रिय थे । इन पुस्तकों के अनुकरण पर और भी कई उपन्यास लिखे गए थे । हिंदी को लोकप्रिय भाषा बनाने में इन उपन्यासों का बहुत बड़ा हाथ है ।’’19 फिर क्या कारण था ? कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्येतिहासकार की दृष्टि भी देवकीनंदन खत्री के योगदान को न देख सकी । उनके महत्व का यथोचित मूल्यांकन न कर सकी । जिसका कारण बताते हुए, वे लिखते हैं – ‘‘ इनमें अद्भुत असाधारण घटनाओं की ऐसी रेल-पेल है कि पाठक का चित्त धक्का खा-खाकर आगे बढ़ता जाता है , उसे कथानक के गठन और चरित्र के विकास की बात याद ही नहीं रहती । अतिप्राकृत , अद्भुत और असाधारण घटनाओं से आश्चर्यजनक परिस्थितियों का निर्माण तिलिस्माती कथानकों का प्रधान आकर्षण था । इन कथानकों में ‘लकलका’ नामक एक प्रकार की मादक वस्तु के प्रयोग का प्रसंग प्राय: ही आता है , जिसके सूघँने से मनुष्य बेहोश हो जाता है । तिलस्माती उपन्यासों का वातावरण भी साहित्यिक ‘लकलका’ है । वह पाठकों को बेहोश और अभिभूत कर देता है ; वह कथानक के उद्देश्य , गठन और पात्रों के साथ उनके संबंध की , और पात्रों के मनोवैज्ञानिक विकास की बात सोच ही नहीं सकता । इन उपन्यासों ने हिंदी जनता के चित्त को ऐसे ही मादक वातावरण में डाल रखा था । ’’20 परंतु यह स्वत: स्पष्ट है कि कथानक के उद्देश्य , गठन और चरित्र-चित्रण का जैसा वर्णन हम ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) में पाते है , वैसा तत्कालीन किसी भी उपन्यास में नहीं पातें है । इसी का प्रमाण उसकी अपार लोकप्रियता है । दूसरी बात पात्रों के मनोवैज्ञानिक विकास की रही , तो तत्कालीन किसी भी उपन्यास में मन की अवस्था का उल्लेख तथा भूतनाथ जैसे चरित्र का विकास नहीं मिलता है । तीसरी बात , यह है कि उपन्यास में अनेक बार जिस लकलके का प्रयोग किया गया है । वह बेहोश नहीं करता , बल्कि बेहोशी को दूर करता है । जिसका मूल्यांकन करते हुए , प्रदीप सक्सेना लिखते है – ‘‘सबसे ज्यादा हजार बार लखलखे का प्रयोग बेहोश आदमी को होश में लाने के लिए किया जाता है । ....क्या ताज्जुब कि आचार्यश्री भी अभिभूत होकर ही उपर्युक्त लिख गए हों ।’’21
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ में आधुनिक काल के ‘साहित्य की बहुमुखी प्रतिभा’ खण्ड में तिलिस्मी उपन्यास का मूल्याकंन 12 वाक्यों में करतें हैं । जहाँ ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ नाममात्र उल्लेख है । ऐसे में तिलिस्मी उपन्यासों से अभिभूत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी तिलिस्मी उपन्यास के प्रवर्तक देवकीनंदन खत्री को ही भूल जाते है तो इसमें हिंदी उपन्यास सम्राट देवकीनंदन खत्री का क्या दोष !
वस्तुत : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी अपनी सीमा जानते थे , तभी तो उन्होंने ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ में निवेदन किया है कि – ‘‘आधुनिक काल की प्रवृत्तियों को समझाने का प्रयत्न तो किया गया है , पर बहुत अधिक नाम गिनाने की मनोवृत्ति से बचने का भी प्रयास है । इससे बहुत से लेखकों के नाम छूट गए हैं , पर यथासंभव साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ नहीं छूटी है ।’’22 पर इतना लिख देने मात्र से साहित्येतिहासकार के दायित्व का अंत नहीं होता । जिस साहित्येतिहासकार ने हिंदी के विकास में अतुलनीय योगदान किया हो ; उसकी चर्चा नाम गिनाना कैसे हो सकता है ।
देवकीनंदन खत्री के साहित्य पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मूल्यांकन को देखकर बहुत निराशा होती है । हिंदी साहित्येतिहास के दोनों स्तंभ ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’ (अधूरा) के कालातीत महत्व को समझने में असफल रहे । जिस लोक की चिंता ने उन्हें भक्तिकाल के महत्व को गंभीरता से विचारने पर बाध्य किया ; उसी लोक की उपेक्षा कर उन्होंने देवकीनंदन खत्री के साहित्य को असाहित्यिक तथा साहित्यिक लकलका बना दिया । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’ (अधूरा) के प्रकाशनों की संख्या तथा लोक प्रसिद्धि को भूल गए ; तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उसके प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणासंचारक तत्व को ही विस्मृत कर गए । प्रतिष्ठापक हिंदी साहित्येतिहासकारों की गलती का ही फल है कि उपन्यास के इतिहास में भी देवकीनंदन खत्री के स्थान पर प्रेमचंद पूर्व या प्रारंभिक उपन्यास लिखने का चलन चल पड़ा है ।
जिस लोक भावना के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूर-तुलसी-जायसी तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर-तुलसी-सूर को स्थापित किया था ; वहीं देवकीनंदन खत्री के मूल्यांकन में लोक भावना की उपेक्षा कर गए । ऐसे में एक गंभीर प्रश्न सामने आता है कि हिंदी साहित्य का इतिहास हिंदी जनता का इतिहास है या केवल हिंदी विद्वत जन का । अगर हिंदी लोक भाषा है , उसका साहित्य लोक साहित्य है ; तो किस अधिकार से लोक साहित्य के इतिहास में लोक भावना की उपेक्षा की जाती है ।
‘‘एक समय था जब ‘चंद्रकांता’ शब्द उपन्यास का पर्याय था ।’’23 ‘‘वह चन्द्रकान्ता का युग था ।’’24 यानी देवकीनंदन खत्री का युग था । पर अपार प्रसिद्धि तथा प्रभाव-उत्पादकता के बाद भी उन्हें हिंदी साहित्येतिहास में युग प्रर्वतक नहीं माना गया । जबकि सहज ही भारतेंदु की मृत्यु से लेकर ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के आरंभ तक के समय को देवकीनंदन खत्री का युग कहा जा सकता था ; पर प्रतिष्ठापक हिंदी साहित्येतिहासकारों की उपेक्षा के कारण यह कार्य अब तक नहीं हुआ । यही कारण है कि हिंदी साहित्येतिहास में देवकीनंदन खत्री के युग की मांग लगातार होती रही है । जिसका उल्लेख करते हुए , मधुरेश लिखते है –‘‘ देवकीनंदन खत्री , अपने युग के , उन बहुत थोड़े-से लेखकों में से एक हैं , भाषा की दृष्टि से जिनकी रचनाएँ आज भी सहज सुपाठ्य है । पाठकों से अपने जीवन्त एवं आत्मीय सम्पर्क के मामले में तो उनके युग का कोई दूसरा लेखक उनके आगे कहीं ठहरता नहीं है । इसी सबके कारण यदि कुछ लोगों की ओर से यह माँग उठायी जाती है कि भारतेन्दु-युग के अन्तर्गत सिर्फ तिलिस्मी-ऐयारी उपन्यास के प्रवर्तनकर्ता के रूप में देवकीनंदन खत्री के साथ न्याय नहीं किया जा सकता , बल्कि भारतेंदु युग के परवर्ती कुछ वर्षों को लेकर उन्हीं के नाम पर उस युग का नामकरण होना चाहिए , तो यह पूरी तरह से ठीक ही है । ऐसी कोई भी मांग उनके ऐतिहासिक संदर्भ को ठीक से प्रस्तुत करने की दिशा में एक क़दम हो सकती है ।’’25 जिससे हिंदी के गौरव , देवकीनंदन खत्री को न्यायोचित प्रतिष्ठा मिल सके ।
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1. मधुरेश , देवकीनंदन खत्री , साहित्य अकादमी , नयी दिल्ली , 1989 , पृ-67.
2. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ- 11-12.
3. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास(प्रथम संस्करण का वक्तव्य) , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ - 4-5.
4. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 270.
5. जैन , ज्ञानचंद्र , प्रेमचंद पूर्व के हिंदी उपन्यास , आर्य प्रकाशन मंडल , दिल्ली , 1998 , पृ – 162.
6. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ – 01.
7. पांडेय , मैनेजर , साहित्य और इतिहास दृष्टि , वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली , 2008 , पृ – 112 – 113.
8. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ - 272-273.
9. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ – 273.
10. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ - 40-41.
11. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ – 19.
12. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ – 12.
13. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ – 39.
14. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , प्रथम संस्करण का वक्तव्य , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ - 6-7.
15. पांडेय , मैनेजर , साहित्य और इतिहास दृष्टि , वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली , 2008 , पृ – 132.
16. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य का आदिकाल, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद , पटना, तृतीय संस्करण -1961 , पृ - 24.
17. डॉ.युगेश्वर(सं.) , देवकीनंदन खत्री समग्र - ‘चंद्रकांता संतति’ , हिंदी प्रचारक संस्थान , वाराणसी , 1993 , भाग – 24 , बयान – 8 , पृ - 1034-1035.
18. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य की भूमिका , राजकमल प्रकाशन . नयी दिल्ली , 2003 ,पृ - 62.
19. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास , राजकमल प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2003 , पृ – 220.
20. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास , राजकमल प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2003 , पृ – 220.
21. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ – 21. 22. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास , राजकमल प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2003 , पृ – 09.
23. डॉ. नगेन्द्र , बाबू देवकीनंदन खत्री स्मृति ग्रंथ , त्रिपाठी , गिरिशचंद्र(सं.) , लहरी बुक डिपो , वाराणसी , 1963 , पृ. -68
24. मधुरेश , देवकीनंदन खत्री , साहित्य अकादमी , नयी दिल्ली , 1989 , पृ – 56.(पर पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का अवतरण )
25. मधुरेश , देवकीनंदन खत्री , साहित्य अकादमी , नयी दिल्ली , 1989 , पृ – 68.
सुनील कुमार साव
सुनील कुमार साव |
मनोरंजक आदि कहकर उपेक्षित किया गया । उनके गुणों को भी अवगुण बना दिया गया ;
जिसका उल्लेख करते हुए , मधुरेश लिखते हैं – ‘‘यह स्थिति भी अपने में पर्याप्त
विरोधाभासपूर्ण लगती है कि जिस तिलिस्मी-ऐयारी उपन्यास की नयी धारा के सूत्रपात के कारण उन्हें एक नये युग के प्रवर्तन का श्रेय मिलता है , उसी कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे आलोचक देवकीनंदन खत्री की इन रचनाओं को साहित्यिक रचनाओं की कोटि में रखने को भी तैयार नहीं थे ।’’1 ऐसे में साहित्येतिहासकार जितना नकारात्मक दृष्टि अपनाने लगा , लोक और साहित्य के बीच उतनी ही दूरी बढ़ती गई ।
‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) ने मात्र हिंदी भाषा , गद्य और पाठक-वर्ग का ही प्रर्वतन नहीं किया , बल्कि नये युग के नये साहित्य का भी प्रर्वतन किया । जिसका उल्लेख करते हुए , प्रदीप सक्सेना लिखते हैं –‘‘वह केवल मनोरंजन का साहित्य नहीं है । वह केवल तिलिस्म का मामला नहीं है और न केवल भाषा का मामला है । वह तो नए समाज के गर्भ से जन्म लेते नए साहित्य की ताजी हवा का मामला है , जिसका सौन्दर्यशास्त्र अभी बना नहीं था । मेरा प्रस्ताव है लाखों लोगों को खींच लेने की शक्ति महज भाषा में नहीं होती , उस वस्तु में होती है , भाषा जिसका संवहन करती है । वह वर्णन-शक्ति उन आदर्शों , स्वप्नों , इच्छाओं और उद्देश्यों से पैदा होती है जो उस दौर को ठीक-ठीक व्यक्त करते हैं । महान प्रतिभाएँ ही ऐसा चमत्कार कर सकती हैं । ’’2
ऐसे में हिंदी साहित्येतिहासकारों के उन मानदण्डों की जाँच आवश्यक हो जाती है , जिनके आधार पर देवकीनंदन खत्री जैसे युग प्रर्वतक जीवनपर्यंत यथोचित मान नहीं पाते ; वही भारतेंदु की मृत्यु के बाद भी उनके साहित्य प्रर्वतन की गति मंद नहीं होती । ऐसे में लगता है कि लोकप्रिय देवकीनंदन खत्री को दबाकर अपेक्षाकृत अधिक विद्वत-प्रिय भारतेंदु के महत्व को बढ़या गया है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
हिंदी साहित्येतिहास लेखन के क्रम में अब तक किसी ने देवकीनंदन खत्री को यथोचित महत्व नहीं दिया , फलस्वरूप काल विभाजन और नामकरण की दृष्टि से भी उनकी उपेक्षा होती रही है । इसके कई कारण हैं ; जिनमें सर्वप्रमुख आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदि साहित्येतिहासकारों की उपेक्षा तथा अपेक्षा को बिना समझे अंधानुकरण करने की प्रवृति हैं । जिसकी सच्चाई को सामने लाना अत्यंत आवश्यक है । जिससे स्पष्ट हो सके कि आखिर वे कौन से कारण थे , जिनके आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल को लोकरंजक तथा लोकप्रिय उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की ही नहीं, बल्कि लोक की भावनाओं की भी उपेक्षा करनी पड़ी ; जिसे समझे बिना देवकीनंदन खत्री के महत्व को नहीं समझा जा सकता है ।
जैसा कि हम जानते है हिंदी साहित्येतिहास का प्रथम व्यवस्थित काल विभाजन और नामकरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ही किया था । उन्होंने आधुनिक काल को गद्यकाल नाम दिया । जिसे उन्होंने तीन भागों में विभाजित किया था – प्रथम उत्थान , द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान । जिसे बाद के साहित्येतिहासकारों ने भारतेंदु युग , द्विवेदी युग तथा छायावाद के नाम से संबोधित किया , किंतु आधार आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ही रहा ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने साहित्येतिहास में कालविभाजन और नामकरण के लिए ‘ग्रंथों की प्रचुरता’ तथा ‘ग्रंथों की प्रसिद्धि’ को महत्वपूर्ण मानदंड मानते हैं । उन्होंने लिखा है - ‘’जिस कालविभाग के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ी है , वह एक अलग काल माना गया है और उसका नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरूप के अनुसार किया गया है। ....... दूसरी बात है ‘ग्रंथों की प्रसिद्धि’ । किसी काल के भीतर जिस एक ही ढंग के बहुत अधिक ग्रंथ प्रसिद्ध चले आते हैं , उस ढंग की रचना उस काल के लक्षण के अंतर्गत मानी जाएगी , चाहे और दूसरे ढंग की अप्रसिद्ध और साधारण कोटि की बहुत सी पुस्तकें भी इधर उधर कोंनों में पड़ी मिल जाया करें । प्रसिद्धि भी किसी काल की लोकप्रवृत्ति की प्रतिध्वनि है । सारांश यह है कि इन दोनों बातों की ओर ध्यान रखकर कालविभागों का नामकरण किया गया है ।’’3 जिसे हम उनके साहित्येतिहास के कालविभाजन और नामकरण में प्रयुक्त देख सकतें हैं ।
‘ग्रंथों की प्रचुरता’ तथा ‘ग्रंथों की प्रसिद्धि’ ही कालविभाजन और नामकरण का आधार है तो फिर ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ की उपेक्षा क्यों हुई ? क्या उस युग में ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ से अधिक किसी अन्य ग्रंथ का प्रकाशन हुआ था ? या उस युग में ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ से अधिक किसी अन्य ग्रंथ को प्रसिद्धि प्राप्त थी । इसका उत्तर देते हुए , गोपाल राय लिखते हैं - ‘’चंद्रकांता प्रथम बार सन् 1891 ई. में प्रकाशित हुईं । आरंभ में यह पुस्तक डिमाई आकार में मुद्रित हुईं थी , जिसका छठा संस्करण 1904 ई. में प्रकाशित हुआ । उस जमाने में जब हिंदी पाठकों की संख्या अत्यल्प थी , लगभग 14 वर्ष के भीतर चंद्रकांता के छह संस्करणों का प्रकाशित होना ; जबकि किशोरी लाल गोस्वामी आदि समकालीन उपन्यासकारों की पुस्तकें 14 -14 वर्ष तक पाठकों के अनुत्साह से अप्रकाशित रह गयी थी , उसकी लोकप्रियता का असंदिग्ध प्रमाण है । परवर्ती काल में भी चंद्रकांता की लोकप्रियता अबाधित रही । सन् 1961 ई. तक चंद्रकांता के कुल मिलाकर 45 संस्करण प्रकाशित हो चुके थे । यदि प्रत्येक संस्करण में मुद्रित प्रतियों की संख्या औसत रूप में 4000 भी मान ली जाए तो चंद्रकांता की अब तक लगभग 1 लाख 80 हजार प्रतियाँ मुद्रित और पाठकों के बीच वितरित हो चुकी है । हिंदी की किसी अन्य पुस्तक को यह सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ हैं । ’’4 तभी तो उनके पाठकों की संख्या अब भी लगातार बढ़ रही है ।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ अपने युग में ही नहीं , उसके बाद भी सर्वाधिक प्रकाशित और प्रसिद्ध रचना रही । ऐसे में देवकीनंदन खत्री के नाम पर उस कालखण्ड का नामकरण क्यों नहीं किया गया ? जबकि भारतेंदु की म़ृत्यु के बाद और सरस्वती पत्रिका के प्रकाशन के पहले - 1888 से 1900 तक के समय में देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों - ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ के अलावा जनता में साहित्य-चर्चा का कोई अन्य विषय ही नहीं था । तभी तो ज्ञानचंद्र जैन ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ की लोकप्रियता की तुलना ‘रामचरित मानस’ से करते हुए , लिखते हैं - ‘‘दोनों उपन्यास के जितने संस्करण हुए उतने गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस को छोड़ हिंदी में और किसी पुस्तक के नहीं हुए ।’’5
आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने साहित्य में लोकतत्व को बहुत महत्व देते हैं । यही कारण है कि उनका साहित्य का इतिहास लोक की भावनावों का संवहन कर सकी । जिसे स्पष्ट करते हुए , उन्होंने लिखा है कि -‘‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है , तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है । आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है ।’’6 आचार्य रामचंद्र शुक्ल की लोकवादी इतिहासद़ृष्टि की सराहना सारे हिंदी प्रेमी करते हैं । तभी तो मैनेजर पांडेय जैसे आलोचक को भी लिखना पड़ता हैं कि – ‘‘उनके अनुसार रचनाओं की श्रेष्ठता की कसौटी लोकरुचि है और उनके स्थायित्व का प्रमाण जनता में लोकप्रियता । यह आचार्य शुक्ल की लोकवादी इतिहासद़ृष्टि का एक प्रमाण हैं ।’’7 हम जानते है कि हिंदी भाषी जनता में ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ की रचना काल से अब तक उसका स्थायित्व बना हुआ हैं । फिर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जनता की चित्तवृत्ति में संचित ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ के प्रतिबिम्ब को क्यों नहीं स्वीकार किया ? जब जनता की चित्तवृत्ति ने देवकीनंदन खत्री को निर्विवाद रूप से अपनाया था ; तो देवकीनंदन खत्री के नाम पर उस कालखंड का नामकरण क्यों नहीं किया गया ?
ऐसे में यह भी नहीं कहा जा सकता है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल देवकीनंदन खत्री के उपरोक्त गुणों से अपरिचित थे , क्योंकि उन्होंने स्वयं ही लिखा है - ‘‘पहले मौलिक उपन्यास लेखक , जिनके उपन्यासों की सर्वसाधारण में धूम हुई , काशी के बाबू देवकीनंदन खत्री थे । ..... उक्त काल के आरंभ में तो ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ नामक इनके ऐयारी के उपन्यासों की चर्चा चारों ओर इतनी फैली कि जो लोग हिंदी की किताबें नहीं पढ़ते थे वे भी इन नामों से परिचित हो गए । ..... ‘चंद्रकांता’ पढ़कर वे हिंदी की और प्रकार की साहित्यिक पुस्तकें भी पढ़ चले और अभ्यास हो जाने पर कुछ लिखने भी लगे ।’’8 फिर किस आधार पर उन्होंने देवकीनंदन खत्री के नाम पर उक्त कालखण्ड का नामकरण भी नहीं किया और उन्हें साहित्य की कोटि से भी बाहर निकाल दिया । इसका कारण स्पष्ट करते हुए , उन्होंने लिखा है - ‘‘इन उपन्यासों का लक्ष्य केवल घटनावैचित्र्य रहा ; रससंचार , भावविभूति या चरित्रचित्रण नहीं । ये वास्तव में घटनाप्रधान कथानक या किस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं , इससे ये साहित्यकोटि में नहीं आते ।’’9
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की असाहित्यि कोटि की सार्थकता पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर आज तक के कई आलोचकों ने प्रश्न चिह्न लगा दिया है । देवकीनंदन खत्री के ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ के मूल्यांकन के संदर्भ में यह चुनौती प्रदीप सक्सेना ने प्रस्तुत की है । उन्होंने लिखा है – ‘‘ शुक्लजी ने यदि रस को ही आधार बनाया होता तो यह कृति तो अद्भुत और भयानक रस का प्रशान्त महासागर तो निकल ही आती कम-से-कम । .... रस संचार के मारे तो लोगों को लाईनों में खड़ा होना मंजूर था । बिना बाँधे फर्मे ले जाना और एक-एक शब्द चाट जाना मंजूर था । बाप और बेटों का अलग-अलग छिपकर पढ़ना जायज था । यह अलग बात थी कि शुक्लजी का इच्छित रस न हो , और वीर और श्रृंगार की भी छटाएं उपलब्ध हैं । भाव विभूति पर तो पन्ने के पन्ने रँगें जा सकते हैं और चरित्र-चित्रण मे तो उस दौर का कोई भी उपन्यास इसका सामना नहीं कर सकता ।’’10 और रही बात जीवन के विविध पक्षों के अभाव और घटनावैचित्र्य का ; तो हम स्वयं जानते है कि सूरदास के संदर्भ में जीवन के विविध पक्षों वाला आधार , आधारहीन हो जाता है । रही बात घटनावैचित्र्य की , तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने घटनावैचित्र्य से होनेवाली हानि का उल्लेख नहीं किया है । जिसका कारण बताते हुए , प्रदीप सक्सेना लिखते हैं – ‘‘ दरअसल शुक्लजी के पास इससे अधिक के लिए अवकाश न था । रहस्यवाद के प्रति उनके मन में एक ऐसी कटु-सतर्कता लगातार विराजती रही थी कि कहीं हो तो सर कलम कर दें । फिर तिलिस्म भेदकर अंतर्वस्तु के खजाने तक पहुँचने का प्रश्न ही नहीं था।’’11
यह पहला मौका नहीं है जब आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किसी रचना को असाहित्यिक कहा हो , देवकीनंदन खत्री से पहले भी उन्होंने सिद्ध-ऩाथ साहित्य तथा कबीर आदि ज्ञानमार्गी शाखा के साहित्यकारों को सांप्रदायिक कहकर उन्हें साहित्य की कोटि से भी बाहर निकाल दिया । सिद्ध-ऩाथ साहित्य को बाहर निकालने का कारण स्पष्ट करते हुए , वे लिखते है - ‘‘ वे सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं , अत: शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं ।’’12 आगे कबीर आदि ज्ञानमार्गी शाखा के साहित्यकारों की सांप्रदायिकता को स्पष्ट करते हुए , वे लिखते है - ‘‘इस शाखा की रचनाएँ साहित्यिक नहीं हैं - फुटकल दोहों या पदों के रूप मे हैं जिनकी भाषा और शैली अधिकतर अव्यवस्थित और उटपटांग है ।’’13 हम जानते है कि ‘सिद्ध साहित्य’ पर धर्मवीर भारती तथा ‘नाथ संप्रदाय’ और ‘कबीर’ पर हजारी प्रसाद द्विवेदी के पुस्तकों के प्रकाशन के बाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल के दृष्टिकोण की सीमा स्पष्ट हो गयी , फलस्वरुप अब सिद्ध-ऩाथ साहित्य तथा कबीर आदि ज्ञानमार्गी शाखा के साहित्यकारों को कोई सांप्रदायिक और असाहित्यक नहीं मानता है । तत्पश्चात् उन्हें यथोचित मान भी मिला । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर को ज्ञानमार्गी शाखा का प्रर्वतक मान लिया था , परंतु सिद्ध-ऩाथ साहित्य के साथ वे न्याय नहीं कर पाये थे ; जिसे राहुल सांकृत्यायन ने आदिकाल को ‘सिद्ध-सामंत काल’ नामकरण कर किया तथा बाद के साहित्येतिहासकारों ने इसे स्वीकार कर किया । देवकीनंदन खत्री के संदर्भ में यह काम प्रदीप सक्सेना द्वारा रचित ‘तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र’ पुस्तक के प्रकाशन से हुआ ।
इस प्रकार यह कहा जा सकता हैं कि एक साहित्येतिहासकार जिसने लोक की भावना को ही अपने साहित्येतिहास का आधार बनाया था , कितुं वही उस आधार का पालन न कर सकें , उनसे कुछ स्थानों पर चुक हो गयी ; पर ऐसा नहीं है कि उन्हें अपनी भूल का एहसास न हो । उन्हें पता था कि समकालीन लेखकों पर लिखना कितना जोखिम का काम है । जिसे स्पष्ट करते हुए , वे लिखते है - ‘‘आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान साहित्यिक घटना है । इसलिये उसके प्रसार का वर्णन विशेष विस्तार के साथ करना पड़ा है । मेरा विचार इस थोड़े से काल के बीच हमारे साहित्य के भीतर जितनी अनेकरूपता का विकास हुआ है , उनको आरंभ तक लाकर उसमें आगे की प्रवृत्तियों का सामान्य और संक्षिप्त उल्लेख करके ही छोड़ देने का था क्योंकि वर्तमान लेखकों और कवियों के संबंध में कुछ लिखना अपने सिर एक बला मोल लेना ही समझ पड़ता था । पर जी न माना । वर्तमान सहयोगियों तथा उनकी अमूल्य कृतियों का उल्लेख भी थोड़े बहुत विवेचन के साथ डरते डरते किया गया । ’’14 साफ है डरते डरते किया गया कार्य सही नहीं होता और डर का कारण यथोचित आलोच्य कृतियों के अभाव में सही मूल्यांकन का न हो पाना था । आचार्य रामचंद्र शुक्ल की विशेषता इसमें है कि उन्हें केवल अपनी सीमित सामग्री का ही बोध नहीं था बल्कि अपनी सीमाओं का भी ज्ञान था । तभी तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास का विकल्प नहीं है ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद कई साहित्येतिहास लिखे गए , पर नवीन साहित्येतिहासदृष्टि के अभाव में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ही कमोवेश अनुकरण होता रहा । ऐसे ही समय आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी परंपराओं की निरंतरता की साहित्येतिहासदृष्टि के साथ हिंदी साहित्येतिहास लेखन का कार्य आरंभ करते हैं । जिसका उल्लेख करते हुए , मैनेजर पाण्डेय लिखते हैं - ‘‘इतिहासलेखन का नयापन विस्मृत परंपराओं की खोज करने , परंपराओं को पुनर्व्यवस्थित करने और उनका नया मूल्यांकन करने में प्रकट होता है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने यह महत्वपूर्ण काम किया है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहासलेखन का प्रयास परंपरा के पुनर्मूल्यांकन और नए विकास की संभावनओं की ओर संकेत करने के कारण ही आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद हिंदी साहित्य के इतिहासलेखन की दिशा में एक सार्थक और नया प्रयास माना जाता है ।’’15 तभी तो हिंदी साहित्येतिहास लेखन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम आता है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सामने कालविभाजन और नामकरण को व्यवस्थित करने की चुनौती थी , तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के समक्ष उसे विसंगति मुक्त करने की ; जिसे उन्होंने यथा संभव किया । यही कारण है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल तो स्वीकार किया , पर वीरगाथा काल की सार्थकता पर प्रश्न चिह्न लगा दिया । जिसे स्पष्ट करते हुए , वे लिखते हैं – ‘‘ कालप्रवृत्ति का निर्णय प्राप्त ग्रंथों की संख्या द्वारा नहीं निर्णीत हो सकता , बल्कि उस काल की मुख्य प्रेरणादायक वस्तु के आधार पर ही हो सकता है । प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणासंचारक तत्व ही साहित्यिक काल के नामकरण का उपयुक्त निर्णायक हो सकता है ।’’16 फलस्वरूप आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘आदिकाल’ को साहित्यिक दृष्टि से वीरगाथा काल कहने की अपेक्षा ‘सिद्ध-सामंत काल’ कहना अधिक न्यायसंगत माना ।
अगर प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणासंचारक तत्व के ही आधार पर साहित्यिक काल के नामकरण का निर्धारण किया जा सकता है । तो देवकीनंदन खत्री के ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) के प्रभाव तथा प्रेरणा की उपेक्षा क्यों हुईं ? क्या उस काल में ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’ से अधिक प्रेरणादायक साहित्य था ? या हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी भाषा पढ़ने , उसके पाठक बनने की प्रेरणा का महत्व ही नहीं है , क्योंकि हिंदी साहित्य इतिहास में यह रोज़ होने वाली घटना है । जिस हिंदी गद्य को स्थापित करने में भारतेंदु और उनका मंडल असफल रहा , उसे देवकीनंदन खत्री ने किया । जिसका उल्लेख करते हुए , वे लिखते हैं – ‘‘ उस समय हिंदी के लेखक थे ; परंतु ग्राहक न थे । .....मेरे बहुत से मित्र हिंदुओं की अकृतज्ञता का यों वर्णन करते हैं कि उन्होंने हरिश्चंद्रजी जैसे देश हितैषी पुरूष की उत्तम पुस्तकें नहीं खरीदी । .....मुझे इस बात का बड़ा हर्ष है कि मैं इस विषय में सफल हुआ और मुझे ग्राहकों की अच्छी श्रेणी मिल गई । यह बात बहुत से सज्जनों पर प्रकट है कि ‘चंद्रकांता’ पढ़ने के लिए बहुत से पुरूष नागरी की वर्णमाला सीखते हैं और जिनको कभी हिंदी सीखना न था उन लोगों ने भी इसके लिए सीखी ।’’17 ऐसे में देवकीनंदन खत्री के योगदान को कम नहीं मानना चाहिए । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का आचार्य रामचंद्र शुक्ल से दूसरा मतभेद मध्यकाल काल को लेकर है ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भक्तिकाल को मध्यकाल तथा ‘अपने पौरूष से हताश जाति की अभिव्यक्ति’ मानने से अस्वीकार करते हैं । वे भक्ति काव्य को जन-आंदोलन का काव्य मानते है । जिसका कारण बताते हुए , उन्होंने लिखा है – ‘‘ प्रथम तो यह जन-आंदोलन की अभिव्यक्ति का साहित्य है , इसलिए इसमें उन रूढ़ियों और परंपराओं की चर्चा नहीं मिलती , जो शास्त्रीयता से पुष्ट साहित्य में साधारणत: मिल जाया करती है । दूसरे , जिस प्राचीन साहित्य के साथ इनकी तुलना की जाती है , उसके बनने से लेकर इस साहित्य के बनने के काल के बीच जो प्राय: आधी सहस्त्रावधि का व्यवधान पड़ता है , उस व्यवधानयुग के विचारों के विकास के अध्धयन की चेष्टा नहीं की जाती । यदि इस व्यवधानकालिक साहित्य के उस अंश को देखें , जिसका संबंध पंडितजनों से नहीं बल्कि जन-साधारण से था , तो कोई संदेह नहीं रह जाएगा कि यह साहित्य इस व्यवधानकालिक जन-साहित्य का ही क्रम विकास है ।’’18 यही बात देवकीनंदन खत्री के साहित्य के संबंध में भी कहा जा सकता है क्योंकि ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) में भी सामंती रूढ़ियों और परंपराओं के ढहने और यथार्थवाद के प्रथमोत्थान की कथा नज़र आती है । दूसरे , जिस ‘तिलिस्मे-होशरूबा’ आदि रचनाओं से ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) की तुलना की जाती है । उन दोनों के रचनाकाल तथा विचारों के विकास क्रम में बहुत अंतर है । यही नहीं , स्वयं ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) के रचनाकाल तथा विचारों के विकास क्रम में बहुत अंतर है । जिसे समझे बिना देवकीनंदन खत्री के साहित्य का मूल्यांकन अर्थहीन होगा ।
ऐसे में यह भी नहीं कहा जा सकता कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी देवकीनंदन खत्री के प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणासंचारक तत्व से अपरिचित थें , क्योंकि उन्होंने स्वयं लिखा है – ‘‘उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में और बीसवीं शताब्दी के आरंभ में हिंदी में सबसे अधिक प्रभावशाली कथा-साहित्य ऐय्यारी और तिलस्मी उपन्यासों का था । देवकीनंदन खत्री के दो उपन्यास चंद्रकांता और चंद्रकांता संतति उन दिनों बहुत लोकप्रिय थे । इन पुस्तकों के अनुकरण पर और भी कई उपन्यास लिखे गए थे । हिंदी को लोकप्रिय भाषा बनाने में इन उपन्यासों का बहुत बड़ा हाथ है ।’’19 फिर क्या कारण था ? कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्येतिहासकार की दृष्टि भी देवकीनंदन खत्री के योगदान को न देख सकी । उनके महत्व का यथोचित मूल्यांकन न कर सकी । जिसका कारण बताते हुए, वे लिखते हैं – ‘‘ इनमें अद्भुत असाधारण घटनाओं की ऐसी रेल-पेल है कि पाठक का चित्त धक्का खा-खाकर आगे बढ़ता जाता है , उसे कथानक के गठन और चरित्र के विकास की बात याद ही नहीं रहती । अतिप्राकृत , अद्भुत और असाधारण घटनाओं से आश्चर्यजनक परिस्थितियों का निर्माण तिलिस्माती कथानकों का प्रधान आकर्षण था । इन कथानकों में ‘लकलका’ नामक एक प्रकार की मादक वस्तु के प्रयोग का प्रसंग प्राय: ही आता है , जिसके सूघँने से मनुष्य बेहोश हो जाता है । तिलस्माती उपन्यासों का वातावरण भी साहित्यिक ‘लकलका’ है । वह पाठकों को बेहोश और अभिभूत कर देता है ; वह कथानक के उद्देश्य , गठन और पात्रों के साथ उनके संबंध की , और पात्रों के मनोवैज्ञानिक विकास की बात सोच ही नहीं सकता । इन उपन्यासों ने हिंदी जनता के चित्त को ऐसे ही मादक वातावरण में डाल रखा था । ’’20 परंतु यह स्वत: स्पष्ट है कि कथानक के उद्देश्य , गठन और चरित्र-चित्रण का जैसा वर्णन हम ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’(अधूरा) में पाते है , वैसा तत्कालीन किसी भी उपन्यास में नहीं पातें है । इसी का प्रमाण उसकी अपार लोकप्रियता है । दूसरी बात पात्रों के मनोवैज्ञानिक विकास की रही , तो तत्कालीन किसी भी उपन्यास में मन की अवस्था का उल्लेख तथा भूतनाथ जैसे चरित्र का विकास नहीं मिलता है । तीसरी बात , यह है कि उपन्यास में अनेक बार जिस लकलके का प्रयोग किया गया है । वह बेहोश नहीं करता , बल्कि बेहोशी को दूर करता है । जिसका मूल्यांकन करते हुए , प्रदीप सक्सेना लिखते है – ‘‘सबसे ज्यादा हजार बार लखलखे का प्रयोग बेहोश आदमी को होश में लाने के लिए किया जाता है । ....क्या ताज्जुब कि आचार्यश्री भी अभिभूत होकर ही उपर्युक्त लिख गए हों ।’’21
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी अपने ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ में आधुनिक काल के ‘साहित्य की बहुमुखी प्रतिभा’ खण्ड में तिलिस्मी उपन्यास का मूल्याकंन 12 वाक्यों में करतें हैं । जहाँ ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ नाममात्र उल्लेख है । ऐसे में तिलिस्मी उपन्यासों से अभिभूत आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी तिलिस्मी उपन्यास के प्रवर्तक देवकीनंदन खत्री को ही भूल जाते है तो इसमें हिंदी उपन्यास सम्राट देवकीनंदन खत्री का क्या दोष !
वस्तुत : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी भी अपनी सीमा जानते थे , तभी तो उन्होंने ‘हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास’ में निवेदन किया है कि – ‘‘आधुनिक काल की प्रवृत्तियों को समझाने का प्रयत्न तो किया गया है , पर बहुत अधिक नाम गिनाने की मनोवृत्ति से बचने का भी प्रयास है । इससे बहुत से लेखकों के नाम छूट गए हैं , पर यथासंभव साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ नहीं छूटी है ।’’22 पर इतना लिख देने मात्र से साहित्येतिहासकार के दायित्व का अंत नहीं होता । जिस साहित्येतिहासकार ने हिंदी के विकास में अतुलनीय योगदान किया हो ; उसकी चर्चा नाम गिनाना कैसे हो सकता है ।
देवकीनंदन खत्री के साहित्य पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मूल्यांकन को देखकर बहुत निराशा होती है । हिंदी साहित्येतिहास के दोनों स्तंभ ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’ (अधूरा) के कालातीत महत्व को समझने में असफल रहे । जिस लोक की चिंता ने उन्हें भक्तिकाल के महत्व को गंभीरता से विचारने पर बाध्य किया ; उसी लोक की उपेक्षा कर उन्होंने देवकीनंदन खत्री के साहित्य को असाहित्यिक तथा साहित्यिक लकलका बना दिया । आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘चंद्रकांता’ , ‘चंद्रकांता संतति’ और ‘भूतनाथ’ (अधूरा) के प्रकाशनों की संख्या तथा लोक प्रसिद्धि को भूल गए ; तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उसके प्रभाव-उत्पादक और प्रेरणासंचारक तत्व को ही विस्मृत कर गए । प्रतिष्ठापक हिंदी साहित्येतिहासकारों की गलती का ही फल है कि उपन्यास के इतिहास में भी देवकीनंदन खत्री के स्थान पर प्रेमचंद पूर्व या प्रारंभिक उपन्यास लिखने का चलन चल पड़ा है ।
जिस लोक भावना के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूर-तुलसी-जायसी तथा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर-तुलसी-सूर को स्थापित किया था ; वहीं देवकीनंदन खत्री के मूल्यांकन में लोक भावना की उपेक्षा कर गए । ऐसे में एक गंभीर प्रश्न सामने आता है कि हिंदी साहित्य का इतिहास हिंदी जनता का इतिहास है या केवल हिंदी विद्वत जन का । अगर हिंदी लोक भाषा है , उसका साहित्य लोक साहित्य है ; तो किस अधिकार से लोक साहित्य के इतिहास में लोक भावना की उपेक्षा की जाती है ।
‘‘एक समय था जब ‘चंद्रकांता’ शब्द उपन्यास का पर्याय था ।’’23 ‘‘वह चन्द्रकान्ता का युग था ।’’24 यानी देवकीनंदन खत्री का युग था । पर अपार प्रसिद्धि तथा प्रभाव-उत्पादकता के बाद भी उन्हें हिंदी साहित्येतिहास में युग प्रर्वतक नहीं माना गया । जबकि सहज ही भारतेंदु की मृत्यु से लेकर ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन के आरंभ तक के समय को देवकीनंदन खत्री का युग कहा जा सकता था ; पर प्रतिष्ठापक हिंदी साहित्येतिहासकारों की उपेक्षा के कारण यह कार्य अब तक नहीं हुआ । यही कारण है कि हिंदी साहित्येतिहास में देवकीनंदन खत्री के युग की मांग लगातार होती रही है । जिसका उल्लेख करते हुए , मधुरेश लिखते है –‘‘ देवकीनंदन खत्री , अपने युग के , उन बहुत थोड़े-से लेखकों में से एक हैं , भाषा की दृष्टि से जिनकी रचनाएँ आज भी सहज सुपाठ्य है । पाठकों से अपने जीवन्त एवं आत्मीय सम्पर्क के मामले में तो उनके युग का कोई दूसरा लेखक उनके आगे कहीं ठहरता नहीं है । इसी सबके कारण यदि कुछ लोगों की ओर से यह माँग उठायी जाती है कि भारतेन्दु-युग के अन्तर्गत सिर्फ तिलिस्मी-ऐयारी उपन्यास के प्रवर्तनकर्ता के रूप में देवकीनंदन खत्री के साथ न्याय नहीं किया जा सकता , बल्कि भारतेंदु युग के परवर्ती कुछ वर्षों को लेकर उन्हीं के नाम पर उस युग का नामकरण होना चाहिए , तो यह पूरी तरह से ठीक ही है । ऐसी कोई भी मांग उनके ऐतिहासिक संदर्भ को ठीक से प्रस्तुत करने की दिशा में एक क़दम हो सकती है ।’’25 जिससे हिंदी के गौरव , देवकीनंदन खत्री को न्यायोचित प्रतिष्ठा मिल सके ।
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1. मधुरेश , देवकीनंदन खत्री , साहित्य अकादमी , नयी दिल्ली , 1989 , पृ-67.
2. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ- 11-12.
3. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास(प्रथम संस्करण का वक्तव्य) , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ - 4-5.
4. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 270.
5. जैन , ज्ञानचंद्र , प्रेमचंद पूर्व के हिंदी उपन्यास , आर्य प्रकाशन मंडल , दिल्ली , 1998 , पृ – 162.
6. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ – 01.
7. पांडेय , मैनेजर , साहित्य और इतिहास दृष्टि , वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली , 2008 , पृ – 112 – 113.
8. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ - 272-273.
9. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ – 273.
10. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ - 40-41.
11. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ – 19.
12. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ – 12.
13. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ – 39.
14. शुक्ल , रामचंद्र , हिंदी साहित्य का इतिहास , प्रथम संस्करण का वक्तव्य , नागरी प्रचारिणी सभा , वाराणसी , संवत् – 2060 वि. , पृ - 6-7.
15. पांडेय , मैनेजर , साहित्य और इतिहास दृष्टि , वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली , 2008 , पृ – 132.
16. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य का आदिकाल, बिहार राष्ट्र भाषा परिषद , पटना, तृतीय संस्करण -1961 , पृ - 24.
17. डॉ.युगेश्वर(सं.) , देवकीनंदन खत्री समग्र - ‘चंद्रकांता संतति’ , हिंदी प्रचारक संस्थान , वाराणसी , 1993 , भाग – 24 , बयान – 8 , पृ - 1034-1035.
18. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य की भूमिका , राजकमल प्रकाशन . नयी दिल्ली , 2003 ,पृ - 62.
19. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास , राजकमल प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2003 , पृ – 220.
20. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास , राजकमल प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2003 , पृ – 220.
21. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ – 21. 22. द्विवेदी , हजारीप्रसाद , हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास , राजकमल प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2003 , पृ – 09.
23. डॉ. नगेन्द्र , बाबू देवकीनंदन खत्री स्मृति ग्रंथ , त्रिपाठी , गिरिशचंद्र(सं.) , लहरी बुक डिपो , वाराणसी , 1963 , पृ. -68
24. मधुरेश , देवकीनंदन खत्री , साहित्य अकादमी , नयी दिल्ली , 1989 , पृ – 56.(पर पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का अवतरण )
25. मधुरेश , देवकीनंदन खत्री , साहित्य अकादमी , नयी दिल्ली , 1989 , पृ – 68.
सुनील कुमार साव
सहायक प्रबंधक( राजभाषा),एम एस टी सी लि. तथा शोध-छात्र (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
पता – 10, एस. पी. बैनर्जी रोड,आलमबजार ,
कोलकाता - 700035 मो. - 09432202321
खत्री जी पर लिखा गया सार्थक आलेख। जासूसी साहित्य के पाठकों में इन जैसा कोई लेखक न हुआ, न होगा ।
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