कोयलांचल : एक फिल्मी सफ़र
--- सुनील कुमार साव
सुनील कुमार साव |
कोयलांचल का फ़िल्मी सफ़र एक ऐसा मनोरंजक सफर है , जहाँ काला पत्थर,
काला हीरा बन चुका है , जिसे हथियाने के लिए स्थानीय कोल-माफिया से लेकर दिल्ली के
दलालों तक में होड़ लग गयी है । इसी होड़ में अपनी किस्मत चमकाने के लिए , कई फ़िल्म
निर्माता भी कूद पड़े है । यही कारण है कि कोयलांचल का फिल्मी सफ़र अब तक जारी है और
लगता है आगे भी जारी रहेगा ।
अब तक कोयलांचल पर कई फ़िल्में बन चुकी हैं ,
जिनमें काला पत्थर, काला हीरा, कोयला , कोल कर्स , गैग्स ऑफ वासेपुर , गैग्स ऑफ
वासेपुर -2 , गुंडे , कोयलांचल आदि महत्वपूर्ण है । इनमें ‘काला पत्थर’ और ‘काला हीरा’ - चासनाला खान
दुर्घटना(1975) , ‘कालका’ - कोयलांचल
की समस्याओं , ‘कोयला’ - खदान से हीरा
निकालनेवाले खदान मालिक के लालच , ‘कोल कर्स’ – कोलगेट घोटाला और सिंगरौली की त्रासदी
तथा ‘गैग्स ऑफ वासेपुर’ , ‘गैग्स ऑफ वासेपुर -2’ , ‘गुंडे’ और ‘कोयलांचल’ - चारों
कोल-माफियाओं के वर्चस्व की लड़ाई से प्रेरित है ।
भारतीय इतिहास
में कोयलांचल को दो राष्ट्रीय घटनाओं - चासनाला खान दुर्घटना(1975) और कोलगेट
घोटाला (2012) से विषेश पहचान प्राप्त हुई । यही कारण है चासनाला खान दुर्घटना और
कोलगेट घोटाले के बाद कोयलांचल पर फ़िल्में तेजी से बनने लगी है ।
27 दिसम्बर 1975
को भारत के इतिहास के सबसे बडी़ खान दुर्घटना धनबाद से 20 किलोमीटर
दुर चासनाला में घटी, सरकारी आँकडों के अनुसार लगभग 375
लोग मारे गये थे । कोल इंडिया के
अंतर्गत आनेवाली भारत कोकिंग कोल लिमिटेड की
चासनाला कोलियरी के पिट संख्या 1 और 2 के ठीक ऊपर
स्थित एक बड़े जलागार (तलाब) में जमा करीब पाँच करोड़ गैलन पानी, खदान की छत को तोड़ता हुआ अचानक अंदर घुस गया और इस प्रलयकालीन बाढ़ में
वहां काम कर रहे, सभी लोग फँस गये । आनन-फानन में मंगाये गये
पानी निकालने वाले पम्प छोटे पर गये, कलकत्ता स्थित
विभिन्न प्राइवेट कंपनियों से संपर्क साधा गया, तब तक काफीं
समय बीत गया, फँसें लोगों को निकाला नहीं जा सका ।1
इससे स्पष्ट है खान में मौज़ूद किसी भी मज़दूर को बचाया नहीं जा सका ।
जांच में सामने आया कि दुर्घटना खदान अधिकारियों
की लापरवाही का नतीजा था। खदान में रिसकर आने वाले पानी को जमा करने के लिए, यहां
एक बांध बनाया गया था। हिदायत भी दी गई थी कि बांध के साठ मीटर की परिधि में
ब्लास्टिंग न की जाये। लेकिन अधिकारियों ने कोयला उत्पादन के चक्कर में इन निशानों
को नजरअंदाज कर दिया और हैवी ब्लास्टिंग की। जिसका परिणाम 375 खनिकों की जल समाधि हो
गई। दुर्घटना के बाद महीनों तक खदान से पानी निकालने का कार्य हुआ. इसमें पोलैंड,
रूस के विशेषज्ञों ने मदद की थी।2
दुर्घटना के 36 वर्षो बाद चासनाला खान दुर्घटना के दोषी तत्कालीन
कोलियरी प्रबंधक रामानुज भट्टाचार्य व दीपक सरकार को धनबाद के न्यायिक दंडाधिकारी
वाईके सिंह ने मार्च में एक वर्ष की सजा व पांच हजार रुपए जुर्माना कर फैसला
सुनाया। ट्रायल के दौरान अन्य आरोपियों का निधन हो गया। दोनों अधिकारी ने फैसले को
लेकर हाई कोर्ट में अपील की है।3 अर्थात
न्यायलय की नज़र में 375 से अधिक लोगो के जान की क़ीमत पांच हजार रुपये व एक वर्ष
कारागर है और वो भी 36 साल बाद । ऐसे में न्यायलय पर कोई क्यों विश्वास करें ।
दूसरी घटना कोलगेट घोटालें की है , जिसके
कारण कोयलांचल को फिर राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई । सभी समाचार माध्यमों ने इस
खबर को प्राथमिकता प्रदान की । जनता की नज़रों में संसद से सड़क तक यही ज्वलंत
मुद्दा बन गया था । पक्ष- विपक्ष दोंनों ओर से आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला आरंभ हो जाता
है ।
कोयला आबंटन
घोटाला (Coal Mining Scam) भारत में
राजनैतिक भ्रष्टाचार का एक नया मामला है जिसमें नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग)
ने भारत सरकार पर आरोप लगाया है कि देश के कोयला भण्डार मनमाने तरीके से निजी एवं
सरकारी संस्थाओं को आबंटित कर दिये गये जिससे सन् २००४ से २००९ के बीच भारतीय
रुपया10,67,000 करोड़ (US$219.8 बिलियन)
की हानि हुई। संसद में पेश कैग रिपोर्ट में जुलाई 2004 से अब
तक हुए 142 कोयला ब्लाक आवंटन से 1.86 लाख
करोड़ रुपये के नुकसान का अनुमान लगाया गया है। रिपोर्ट में कहा गया कि 2004
से 2009 के बीच कोयला खदानों के ठेके देने में
अनियमिताएं बरती गईं. बेहद सस्ती कीमतों पर बगैर नीलामी के खदानों से कोयला
निकालने के ठेके निजी कंपनियों को दिए गए. इससे सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपये का अनुमानित नुकसान हुआ है. भारत के लोकतान्त्रिक काल में
पहली बार हुआ है कि किसी मामले में देश के प्रधानमंत्री पर ऊँगली उठाई गयी हो.
भाजपा कोल ब्लॉक आवंटन मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग कर
रही है।4
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सीबीआई ने जांच
की । जांच रिपोर्ट में फेरबदल इतना आवश्यक हो गया था कि ‘कानून मंत्री अश्विनी
कुमार ने सीबीआई को कोयला घोटाले की जांच रिपोर्ट में कुछ बदलाव करने को कहा है।
इसके बाद 13 मार्च 2013 को सुप्रीम
कोर्ट ने सख्त लहजे में सीबीआई को कहा कि वो कोयला घोटाले की जांच रिपोर्ट किसी से
शेयर ना करे। और, सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा के ये
स्वीकार करने के बाद कि एजेंसी ने सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों से इस बारे में
सलाह-मशविरा किया है, बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और
सीबीआई दोनों को कड़ी फटकार लगाई।’ 5 बात यहां तक बढ़ गयी कि सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिज़ड़े में कैद तोता
तक कह दिया । इससे स्पष्ट है कि अनेक मामलों की तरह ही यहां भी चोर और सिपाही में
समझौता हो गया था ।
काला पत्थर(1979) चासनाला
खान दुर्घटना पर बनी पहली फ़िल्म थी। यह चासनाला खान दुर्घटना के चार साल बाद 1979
में फिल्मी पर्दे पर आई ।‘ काला पत्थर यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित हिंदी फ़िल्म है| फ़िल्म के मुख्य कलाकार अमिताभ
बच्चन, शशि कपूर, राखी, नीतू सिंह, शत्रुघ्न सिन्हा, परवीन
बाबी, प्रेम चोपड़ा, पूनम ढिल्लों हैं|’6 सलीम-जावेद की लिखी इस फ़िल्म के गाने
साहिर के हैं और संगीत सलिल चौधुरी और राजेश रोशन का।7
काला पत्थर की कहानी मुख्यत: विजय पाल सिंह की कहानी है । विजय पाल सिंह एक कलंकित समुंद्री सेना के कप्तान है जो 300 समुंद्री
यात्रियों की ज़िन्दगी खतरे में डालकर जहाज छोड़कर भाग गए थे| अपने किये पर शर्मिंदा होकर विजय पाल एक कोयले की खान में काम करना शुरू
कर देता है लेकिन वह अपना अतीत नहीं भुला पाता| सेठ धनराज एक गैरजिम्मेदार इंसान है जो खान में काम करने
वालों पर ज़ुल्म करता है| विजय का अतीत उसके सामने आ जाता है
जब खान में बाढ़ आ जाती है|8 परंतु इस बार वह भागता नहीं , वह खान में फँसे मज़दूरों को बचाने का लिए
अपने प्राणों तक की भी परवाह नहीं करता है , जिससे उसके मन का बोझ हल्का होता है।
फ़िल्म एक नजर में तो कोयले की खदान में काम
करने वाले मजदूरों की जिन्दगी, उनके सुख-दुख और विडम्बनाओं को टटोलती है, लेकिन साथ
ही साथ इस तरह का कारोबार करने वाले धनपतियों की लिप्सा, महात्वाकाँक्षाएँ
और अपराधवृत्ति को भी रेखांकित करती ।9
चासनाला दुर्घटना पर आधारित फ़िल्म
- काला पत्थर के बाद काला हीरा फ़िल्म बनी । काला हीरा कथाकार संजीव के
उपन्यास - सावधान ! नीचे आग है (1986) पर आधारित है , जिसे भारती प्रोडक्शन के विपिन कुमार ‘काला हीरा’ नाम से सीरियल के रूप में पेश करना चाहते
थे ; जो इस घूसखोर व्यवस्था में संभव नहीं हो पाया । यही
कारण है कि इसके संबंध में कोई विमर्श उपलब्ध नहीं है और जो उपलब्ध है वो मेरे
द्वारा कथाकार संजीव के साक्षात्कार से लिया गया है ।
काला पत्थर और काला हीरा दोनों फ़िल्में चासनाला दुर्घटना पर आधारित है ।
ऐसे में यह जानना आवश्यक हो जाता है कि दोनों फ़िल्मों में क्या अंतर है । इस अंतर
को स्पष्ट करते हुए मेरे द्वारा लिए गए साक्षात्कार में कथाकार संजीव कहते है कि –
‘काला पत्थर’ एक बंबईया मसालें की फ़िल्म है , जो अपने दायित्व के प्रति निष्ठावान नहीं है और ‘काला हीरा’ मेरे उपन्यास ‘सावधान ! नीचे
आग है’ में वर्णित इनक्वयरी कमीशन तक ही सीमित है । इस तरह
दोनों में कोई भी कोयलांचल के हॉरर को व्यक्त नहीं कर पाते हैं ।’ वस्तुत: यह उपन्यासकार की उदारता ही है कि वे अपने उपन्यास को श्रेष्ठ
मानने से इन्कार करते हैं फिर भी यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि काला हीरा ,काला पत्थर से कहीं अधिक यथार्थपरक फ़िल्म है ,क्योंकि
कोयलांचल संजीव का जीवन सत्य है , तो सलीम-जावेद के लिए केवल
एक यात्रापरक फिल्मी पटकथा ।
इसके बाद कालका(1883) फ़िल्म
का नाम आता है , जिसके
निर्माता लोकेश लालवानी हैं । इस फ़िल्म के पटकथा लेखक दिनेश राय हैं । इस फ़िल्म
में शत्रुघ्न सिन्हा, राज बब्बर, रंजीत,
अमजद खान आदि प्रसिद्ध अभिनेताओं ने अभिनय किया है , तो जगजीत सिंह जैसे संगीतकार ने संगीत दिया है ।
फ़िल्म
की कहानी को दो भागों में बांटा जा सकता है – प्रथम , खदान मज़दूरों और
आदिवासियों का शोषण और द्वितीय , उससे मुक्ति का संघर्ष ।
कहानी का आरंभ कोलियरी में नवागत मज़दूरों
के आगमन से होता है । ये मज़दूर कोलियरी में विविध आशाओं के साथ प्रवेश करते है ।
कोलियरी में कम मज़दूरी , यूनियन टैक्स , रंगदारी टैक्स , कर्ज़ आदि से उनकी सारी आशायें टूट
जाती हैं । कोलियरी मालिक की नज़र में एक
मज़दूर की जान से कहीं अधिक किमती है ये कोयला । फलस्वरूप , निम्न
श्रेणी के सेफ्टी इंतेजाम से खनन चल रही थी , जिससे लगातार
खनन के दौरान मज़दूरों की जान जाने लगीं । दूसरी ओर , कोलियरी
मालिक और स्थानीय नेता के गुंडे आदिवासियों को बेदखल कर रहे थे । कहानी का दूसरा
चरण खान दुर्घटना में 85 मज़दूरों की मौत से प्रारंभ होता है ,जिसके बाद मज़दूरों और आदिवासियों का गुस्सा बढ़ जाता है , वे अपने दुश्मनों को हराने के लिए जनांदोलन में एक हो जाते हैं । इस
जनांदोलन को दबाने के लिए कोलियरी मालिक और स्थानीय नेता अपने गुंडों के माध्यम से
भरसक प्रयास करते हैं , परंतु इस जनांदोलन को रोक नहीं पाते
हैं । आगे, सारे मज़दूर मिलकर कोलियरी मालिक और स्थानीय नेता
को कोयले से मार-मार कर कोयले में ही दफ़ना देते हैं , ताकि
कोयलांचल शोषण मुक्त हो ।
कोयला(1997) राकेश रोशन द्वारा निर्देशित
हिंदी फ़िल्म है| फ़िल्म के मुख्य कलाकार शाहरुख़ खान , माधुरी
दीक्षित , अमरीश पूरी हैं | फ़िल्म में
संगीत राजेश रोशन जी ने दिया है |10
कोयला खदान
मज़दूर के बेटे शंकर(शाहरुख़ खान) के बदले की कहानी है ,जिसे गौरी(माधुरी दीक्षित)
और शंकर के प्रेम कहानी के साथ प्रस्तुत किया गया है । राजा साहेब(अमरीश पूरी)
कोयला खदान के मालिक हैं , जिसमे पहले वे फोरमैन थे और शंकर
के पिता मज़दूर ।सर्वप्रथन खदान में हीरे होने की पुष्टि शंकर के पिता - हरिया ने
ही की थी । इन हीरो के लालच में राजा साहेब हरिया और उसकी पत्नी को मरवा देते हैं
और शंकर के मुहँ मे गर्म कोयला डाल देते है , ताकि वो किसी
को कुछ बता न सके । आगे राजा साहेब अनाथ गुंगे शंकर को अपना वफादार गुलाम बना लेते
हैं , परंतु यह वफादारी गौरी पर हुए अत्याचार और उसके भाई की
हत्या के बाद विद्रोह मे बदल जाती है। फलस्वरूप राजा साहेब शंकर की हत्या करवाकर,
गौरी को वेश्यालय भिजवा देते हैं , लेकिन शंकर
मरता नहीं हैं । शंकर को अधमरे हालत में एक व्यक्ति अपने घर ले जाकर इलाज करता है
। इलाज के दौरान उसके गले से कोयले के अवशेष निकाल देने पर वह स्वस्थ होकर बोलने
भी लगता है , और उसे बचपन की सारी घटनायें याद आ जाती हैं ।
स्वस्थ होकर वह गौरी को वेश्यालय से सुरक्षित निकालकर अपने साथ ले जाता है । इसके
बाद वह राजा साहेब और उनके साथियों को खदान में ही मार डालता है , जिसमें राजा साहेब के लालच में अंधे होकर, हरिया की
हत्या की कहानी जाननेवाले मज़दूर भी साथ देते हैं ।
गैंग्स ऑफ वासेपुर’(2012) अनुराग कश्यप की महाभारत है, जिसमें ढेर सारे किरदार
हैं और उन्हें बड़ी सफाई से आपस में गूंथा गया है। हर किरदार की अपनी कहानी है। एक
पीढ़ी द्वारा की गई गलती को कई पीढ़ियां भुगतती रहती है।11 ऐसे
में अगर इसे कोयलांचल का महाभारत कहा जाए , तो गलत न होगा ;
जहां माफिया(डॉन) की गद्दी पाने के लिए भाई-भाई को , भाई-बहन को और बेटा बाप तक को मारने से पीछे नहीं हटता ।
गैंग्स ऑफ
वासेपुर का पहला हिस्सा 1940 के दशक से 1990 के दशक तक चलता है। दूसरा हिस्सा 1990
के दशक से 2009 तक चलता है. जीशान कादरी, अखिलेश जायसवाल, अनुराग कश्यप
और सचिन लालकृष्ण लिखित और अनुराग कश्यप निर्देशित ये फ़िल्म लोगों को बहुत पसंद
आयी।12 आपको जानकर हैरत होगी कि इस बहुचर्चित फ़िल्म की कहानी
का रहस्य धनबाद के वासेपुर के लेखक जिशान कादरी की आठ पन्नों की कहानी में छुपा था,
जिसे सुन कर अनुराग ने अब तक की अपनी सबसे महंगी फ़िल्म बनाने का
निर्णय लिया.13
गैंग्स ऑफ वासेपुर , गैंग्स ऑफ वासेपुर-2 फ़िल्म
के दोनों हिस्से 2012 में रीलिज किए गए थे । इसमें मनोज वाजपेयी , नवाजुद्दीन
सिद्दीकी , जीशान कादरी , तिग्मांशु धूलिया , रीमा सेन , हुमा कुरैशी आदि
महत्वपूर्ण कलाकारों ने अभिनय किया है ।
फ़िल्म
की कहानी आजादी के पहले सुल्ताना डाकू से लेकर आज तक फैली हुई है। यानी साठ-सत्तर
साल का लंबा कालक्रम। धनबाद के पास की कोयला खदानों से लेकर वासेपुर के कुरैशी और
पठानों के बीच की लड़ाई और उस लड़ाई का फायदा उठाते राजनीतिक तत्वों की कहानी।14 फ़िल्म बनती है वासेपुर
में। आज़ादी के पहले से, अंग्रेज़ों के आने और जाने के बीच,
ट्रेन के लूटने का लंबा सीन, सरदार के बाप का
मरना, सरदार का बनना,उसकी शादी,बच्चे।15 इसी क्रम में सरदार की मृत्यु तक
गैंग्स ऑफ वासेपुर का पहला भाग चलता रहता है ।
गैंग्स ऑफ
वासेपुर 2 सही मायने में सिक्वल है।
......गैंग्स ऑफ वासेपुर 2 की कहानी गैंग्स ऑफ वासेपुर के
समाप्त होने से शुरू होती है। पिता की मौत पर दानिश खान का अनियंत्रित गुस्सा
विनीत सिंह ने पूरी ऊर्जा के साथ पर्दे पर उतारा है। ...... बदले की इन घटनाओं से
विरक्त फैजल खान चिलम के धुएं में मस्त रहता है। बड़े भाई दानिश की फब्तियों से भी
उसे फर्क नहीं पड़ता,लेकिन मां के उलाहने को वह बर्दाश्त
नहीं कर पाता। कसम खाता है कि दादा का,बाप का,भाई का सबका बदला लेगा। इस संवाद के बाद हम फैजल खान के व्यक्तित्व में आए
परिवर्त्तन को देखते हैं। हालांकि मोहसिना के प्रति उसकी मोहब्बत का गुलाबी रंग
और अमिताभ बच्चन की फ़िल्मों का असर भी अंत तक बरकरार रहता है,लेकिन नए तेवर में वह धीरे-धीरे क्रूर और नृशंस होता चला जाता है।
रोमांटिक,डिस्टर्ब और फ्रस्ट्रेटेड फैजल खान का बदला जघन्यतम
है। फजलू के गला रेतने से लेकर रामाधीर सिंह की हत्या तक हम फैजल खान को ऐसे
किरदार के रूप में देखते हैं,जो हिंदी फ़िल्मों के पर्दे पर
पहली बार आया है।16
गैंग्स आफ
वासेपुर एक वास्तविक फ़िल्म है। ......वो बारीक रिसर्च से जुटाए गए तमाम पहलुओं से
बनती हैं। जो लोग बिहार की राजनीति के कांग्रेसी दौर में पनपे माफिया राज और
कोइलरी के किस्से को ज़रा सा भी जानते हैं वो समझ जायेंगे कि गैंग्स आफ वासेपुर
पूरी तरह एक राजनीतिक फ़िल्म है और लाइसेंसी राज से लेकर उदारीकरण के मछलीपालन तक
आते आते कार्पोरेट,पोलिटिक्स और गैंग के आदिम रिश्तों की असली कहानी है।17 इस फ़िल्म में कोयला माफियाओं के खूनी
इतिहास के साथ ही साथ 1947 में मजदूरों पर हुए जुर्म, दबंगई,
नेताओं की गुंडागर्दी और डरी सहमी पुलिस को दिखाया गया है।18 ये दृश्य कोयलांचल की सच्चाई है , जिसके
बगैर उसका यर्थाथ मूल्यांकन संभव नहीं ।
फ़िल्म के गीत-संगीत का अंतिम प्रभाव में बड़ा
योगदान है। स्नेहा खानवलकर ने पियूष मिश्रा और वरूण ग्रोवर की गीतों को लोक धुनों
से सजाया है। ........गीतकार ने शादी के गीत के बहाने पिया की इस स्थित के लिए
कहीं न कहीं बापू,गुलाबी चाचा,बाबूजी,लोकनायक और
जननायक को दोषी ठहराते हुए उलाहना दिया है।19 दूसरी ओर मनोज तिवारी का ‘जिया हो बिहार के लाला’ गीत भी काफी प्रभावशाली जान पड़ता है । यही नहीं, ‘यशपाल
शर्मा के गाए गीत और बैंड फ़िल्म के दृश्यों को मार्मिक बनाते हैं। गीत और
पार्शव संगीत के सही उपयोग से फ़िल्म अधिक
प्रभावशाली और अर्थपूर्ण हो गई है।’20 ऐसे में फ़िल्म के संगीतकार सचमुच तारीफ के
हकदार है ।
कोल कर्स (कोयला या काला
शाप) मसहूर पत्रकार प्रंजॉय गुहा ठकुराता की डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म है ,जिसे
उन्होंने दिल्ली सहित कई बड़े शहरों में प्रदर्शित किया। "कोल कर्स"(2013)
फ़िल्म को ग्रीनपीस नामक संस्था की मदद से बनाया गया है , जो पर्यावरण संबंधी अपने
उल्लेखनीय कार्यो के लिए प्रसिद्ध है । 43 मिनट की इस
डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में कोलगेट स्कैम , बिजली उत्पादन का केंद्र सिंगरौली की
त्रासदी और मौजूदा ऊर्जा संकट के समाधान पर गंभीर चर्चा की गई है । कोयला खनन
उद्योग से जुड़े विविध मुद्दों पर परत दर परत चर्चा करते हुए प्रंजॉय गुहा ठकुराता
समस्या की जड़ तक पहुंचने का प्रयास करते है , जिसके लिए उन्होंने सिंगरौली के
आदिवासियों से लेकर कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव आदि को भी इस परिचर्चा में शामिल किया गया है । यही नहीं,
मौजूदा ऊर्जा संकट से निपटने के लिए कोयले का विकल्प बताते विविध पर्यावरण
कर्मियों के विचारों को भी फ़िल्म में स्थान दिया गया है ।
कोयला
मंत्रालय के पूर्व सचिव और भू-वैज्ञानिक – पी.सी.पारख , भारतीय भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण
के पूर्व उप-मुख्य निदेशक – स्वर्गिय सुब्रत सिन्हा , आर्थिक मामला विभाग के पूर्व
सचिव और पूर्व ऊजा सचिव – ई.ए.एस. सरमा , इंडिपेंडेंट पावर एशोसिएसन ऑफ इंडिया के
मुख्य निदेशक – हैरी धौल , मांइस, मिनरल्स एण्ड पीपल के संयोजक –आर. श्रीधर ,
पूर्व नौकरशाह – शैलेश पीठक , पूर्व केन्द्रिय ग्रामीण विकास मंत्री – जयराम रमेश
, पूर्व केन्द्रिय जनजातीय कार्य और पंचायती राज मंत्री – वी. किशोर चंद्र देव ,
पूर्व नौकरशाह और सामाजिक कार्यकर्ता – हर्ष मंदर , क्लाईमेट एण्ड एनर्जी कैम्पेन
(ग्रीनपीस इंडिया) की कैम्पेन मैनेजर –विनुता गोपाल और सिनियर कैम्पेनर –प्रिया
पिल्लई आदि विशिष्ठ लोगों के साथ स्थानीय लोगों ने भी इस गंभीर परिचर्चा में भाग
लिया है । इस परिचर्चा की उपादेयता उपरोक्त सूची से ही स्पष्ट है ।
इस फ़िल्म में
प्रंजॉय गुहा ठकुराता ने कहा, "कोयला अर्थव्यवस्था को चलाने में आधार की तरह काम करता है, लेकिन इसके लिए हमें भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। सिंगरौली में कोयला खनन
का विपरीत असर आम लोगों के जीवन पर दिख रहा है, ख़ासकर
स्थानीय आदिवासी समुदाय के लोगों को जितना नुकसान हुआ है, उसकी
कभी पूर्ति नहीं की जा सकती। भारत के विकास के रास्तों के चलते आमलोगों को कितना
नुकसान उठाना पड़ा है, इसका आज का सिंगरौली प्रतिमान बन गया
है।"21 जहां से देश को 10% बिजली मिलती तो
है , लेकिन आदिवासियों को विस्थापित करने की किमत पर , जो बहुत शर्म की बात है ।
‘गुंडे’ अली अब्बास ज़फ़र द्वारा रचित एवं आदित्य चोपड़ा द्वारा निर्देशित 2014 की एक भारतीय एक्शन अपराध रहस्य फ़िल्म है। फ़िल्म में मुख्य भूमिका में
रणवीर सिंह, अर्जुन कपूर और प्रियंका चोपड़ा हैं जबकि खलनायक
का अभिनय इरफ़ान ख़ान ने किया है। 22
गुंडे फ़िल्म दो कोयला-चोर दोस्तों- बिक्रम और
बाला की कहानी है ,जो बांग्लादेश के गठन के बाद भारत में बांग्लादेशी रिफ़्यूजी के
रूप में आते हैं। वे 20 किलो कोयले की चोरी से यह धंधा आरंभ करते है और केवल 10
सालों में 200 क्विटंल कोयले से भरी ट्रेन को लूटते हैं। इसके बाद वे दिवाकर नामक
कोल-माफिया को मारकर उसका सारा धंधा छीन लेते है। यही नहीं, वे बांग्लादेशी हिल्सा
, वर्मा के टिम्बर आदि विविध दो नम्बरी धंधो में भी अपना एकक्षत्र राज कायम करते
हैं। इस तरह वे कलकत्ता के सबसे शक्तिशाली गुंडों के रूप में उभरते हैं , जिन्हें
पुलिस का कोई डर नहीं था । ऐसे ही समय ए. एस. पी. सत्यजीत सरकार, बिक्रम और बाला
की दोस्ती में दरार डालने के लिए ऑफिसर नंदिता बोस को उन्हें प्यार के जाल में
फँसाने को कहते है । फलस्वरूप बिक्रम और बाला एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं , लेकिन
सच्चाई जानते ही दोनों में फिर मेल हो जाता है। इसके बाद वे कोयले के खदान में ही
अपने दुश्मनों को मार डालते है । तभी पुलिस द्वारा घेर लिए जाने पर वे कोयले से
भरी ट्रेन को पकड़ने के लिए दौड़ पड़ते हैं ,लेकिन पुलिस दोनों को गोली मारकर गिरा
देते है और वही बिक्रम और बाला के साथ फ़िल्म भी खत्म हो जाती हैं ।
कोयलांचल(2014) एक
अपराधपरक एक्सन फ़िल्म है, जिसके निर्माता आशु त्रिखा है । फ़िल्म में विनोद खन्ना
, सुनील शेट्टी , विपिन्नो आदि कलाकार मुख्य भूमिका में है । ‘श्री राम दुबे के अनुसार फ़िल्म
कोयलांचल की कहानी उनकी लिखी पुस्तक अग्निव्यूह से प्रेरित है।’23
औद्योगिक प्रगति के
लिए कोयला महत्वपूर्ण ईंधन है तो कोयलांचल उन लोगों की विस्फोटक कहानी है जो इस
कीमती ईंधन पर कब्जा जमाए हुए हैं और कोल माफिया कहलाते हैं।24 यह फ़िल्म
कोयला माफियाओं की ताकत और बरसों से उस भूखंड पर कब्जा जमाये लोगों के खिलाफ आवाज
उठा रहे चंद लोगों की कहानी है. जिन्हें लगता है कि वे एक यूनियन बनाकर अपनी लड़ाई
को अंजाम दे सकते हैं, लेकिन यह इतना आसान नहीं.25 तभी
तो यूनियन के नेताओं को दिन-दहारे बेरहमी से कत्ल कर दिया जाता हैं, और संसद से
सड़क तक सभी खामोश रह जाते हैं । इसी से स्पष्ट है कि ‘कोयलांचल
में माफिया डौन प्रशासन के राष्ट्रीयकरण के प्रयासों को धता बताते हुए किस तरह
समानांतर सरकार चलाते हैं, ? यह फ़िल्म इसका जीताजागता
उदाहरण है.’26
फ़िल्म की कहानी आम फ़िल्मों
की तरह एक कोल माफिया डौन सरयूभान सिंह (विनोद खन्ना) और एक ईमानदार कलैक्टर निशीथ
कुमार (सुनील शेट्टी) के टकराव की है. राजापुर इलाके में सरयूभान सिंह का राज है.
कोयलांचल में जो भी उस के रास्ते में आता है, उसे मार डाला
जाता है. करुआ (विपिन्नो) उस का खास आदमी है, जो खूंखार है.
कलैक्टर निशीथ कुमार की पोस्टिंग राजापुर होती है. वह सरयूभान सिंह की आंख की
किरकिरी बन जाता है. करुआ निशीथ कुमार की पत्नी को जख्मी कर उस के छोटे बेटे को
किडनैप कर लेता है. निशीथ कुमार सरयूभान पर शिकंजा कसता है. परिस्थितियां ऐसी बनती
हैं कि बच्चा करुआ के लिए मुसीबत बन जाता है. एक वेश्या करुआ को सीख देती है कि
बच्चे को उस की मां को लौटा दे. करुआ का हृदय परिवर्तन होता है. वह सरयूभान को
कोयलांचल की आग में समा जाने को राजी कर लेता है और खुद भी भस्म हो जाता है.27
निर्देशक आशु त्रिखा ने फ़िल्म
में जहां स्टेट ब्यूरोक्रेसी और कोल माफिया की मिलीभगत को दिखाया है वहीं उस ने
सभी चालू मसालों को भी डाला है. फ़िल्म में माओवादी हैं, एक
क्रांतिकारी बंगाली नेता है, नौटंकी है, वेश्या के उभार हैं और क्रांतिकारी कविता भी. साथ ही, उस ने एक ऐसे किरदार करुआ (विपिन्नो) की रचना की है जो सिर्फ खून की भाषा
समझता है, एक इशारे में आदमी का सिर धड़ से अलग कर देता है
और सिर्फ अपने ‘मालिक’ (डौन) का हुक्म
मानता है, उस के पैर धो कर वह पानी पीता है. उस के लिए उस का
यह ‘मालिक’ ही सबकुछ है. ऐसे किरदार की
रचना कर निर्देशक ने आतंक का माहौल क्रिएट किया है.28 लेकिन भावनाओं के
दूसरे पक्षों से अनजान करुआ में भी परिवर्तन होता है , जब वह निशीथ कुमार के बच्चे
को अगवा करता है । ऐसे में यह कहा जा सकता है कि ‘कोयलांचल'
वास्तव में परिवेश से अधिक उन किरदारों की कहानी है, जिन्होंने भावनाओं का दूसरा पक्ष देखा ही नहीं है। इन कोमल पक्षों के
साक्षात्कार के बाद उनमें भी तब्दीली आती है।’29 तब वे भी बच्चों से प्रेम करते है , सही-गलत का फर्क समझते है , अपनी
गलतियों को सुधारते और दण्ड भी स्वीकार करते है ।
इस तरह हम देख
सकते है कि कोयलांचल से संबंधित प्रत्येक फ़िल्म में राजनेता और कोल माफिया का
गठजोड़ ही उस क्षेत्र के विनाश का कारण बनता है। खान दुर्घटना , मजदूरों का शोषण ,
आदिवासियों का विस्थापन , अवैध खनन , कोल-माफिया की दहशत , कोलगेट घोटाला ,
पर्यावरण का संकट आदि सभी समस्याओं की जड़ ये गठजोड़ ही है । कोयलांचल में आज़ादी
के बाद ही नहीं , कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के बाद भी न मजदूरों का शोषण रूका
है और न आदिवासियों का विस्थापन । ऐसे में आज़ादी और कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण
से क्या लाभ !
ये फ़िल्में केवल
कोयलांचल पर आधारित फ़िल्म नहीं हैं , ये उस क्षेत्र के सामाजिक , सांस्कृतिक ,
आर्थिक और राजनीतिक दस्तावेज भी हैं , जिनमें कोयलांचल के दर्द के साथ ही , इस
दर्द से मुक्ति का रास्ता भी दिखाया गया है । रास्ते की दुर्गमता को जान पटकथा
लेखक सिर्फ फ़िल्म के नायक को ही आगे बढ़ने के लिए तैयार करता है । यही कारण है कि
इन फ़िल्मों के नायक जैसे –विजय पाल सिंह(काला पत्थर) , कालका(कालका) , शंकर
(कोयला) , सरदार (गैंग्स ऑफ वासेपुर) , फैजल(गैंग्स ऑफ वासेपुर-2) ,
करुआ(कोयलांचल) आदि दुर्गम रास्तों पर चलकर दूसरों के लिए मिशाल बनते हैं ।
कोयलांचल से संबंधित फ़िल्मों में
कालका और कोल-कर्स को छोड़कर शेष सभी फ़िल्में मनोरंजक परक दृष्टि से निर्मित
सुखांत हैं , जिनका उद्देश्य फ़िल्मों के बाजार में एक और फ़िल्म बनाकर मुनाफा
कमाना है । फलस्वरूप इन फ़िल्मों में दर्शकों की रूचि का बहुत ध्यान रक्खा गया है
, दूसरी ओर कालका और कोल-कर्स में दर्शकों की रूचि से कहीं अधिक ध्यान – कोयलांचल की
समस्याओं के समाधान पर केंद्रित की है । यही कारण है कि कोल-कर्स में आदिवासियों
के लोकगीतों और कालका में बिदासिया जैसे ह्रदय-विदारक गीतों को समाहित किया गया है
। वस्तुत: यह कहा जा सकता है कि कालका और कोल-कर्स को कोयलांचल के
वास्तविक चित्र प्रस्तुत करने में जो सफलता प्राप्त हुई है , वह कोयलांचल से
संबंधित अन्य किसी भी फ़िल्म को नहीं प्राप्त हुई है ।
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1. http://hi.wikipedia.org/wiki/चासनाला_खान_दुर्घटना
2. http://dhanbadonline.com/CityLive/City%20Plus/city.aspx?id=101103.
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6. http://filmkahani.com/70-decade/kaala-patthar-movie-review.html
7. http://mishrsunil.blogspot.in/2011/04/blog-post_16.html
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10.http://filmkahani.com/90-decade-movie-reviews/koyla-movie-review.html
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22.http://hi.wikipedia.org/wiki/गुंडे_(फ़िल्म)
23. http://naxatranewshindi.com/विवादों-में-घिरी-फ़िल्म-कोयलांचल
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26. http://www.sarita.in/film-review
27. http://www.sarita.in/film-review
28.http://www.sarita.in/film-review
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सुनील कुमार साव
सहायक प्रबंधक( राजभाषा),एम एस टी सी लि. तथा शोध-छात्र (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
पता – 10, एस. पी. बैनर्जी रोड,आलमबजार ,
कोलकाता - 700035 मो. - 09432202321
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