कोयलांचल की कहानी कोयलांचल
के कथाकार की ज़ुबानी
--- सुनील कुमार साव
सुनील कुमार साव |
1. आपके जीवन में कोयलांचल का क्या महत्व है ?
मेरा
बचपन कोयलांचल में बीता । मेरे नीचे भी कोयला था और इर्द-गिर्द कोलियरियों में भी ,
बाद में मैंने जाना कि कोयलाएक संचित उर्जा है, तो मेरा आकर्षण और बढ़ा –
स्थूल और प्रतीक दोनों रूपों में ।
2. जब लोग आपको कोयलांचल का कथाकार कहते हैं , तब आपको कैसा लगता है ?
अच्छा
लगता है । जिस कोयलांचल के कॉस्मोपॉलिटन संस्कारों ने मुझे बनाया। उससे किनारा
कैसे कर सकता हूँ ।
3. आपके कथा-साहित्य में कोयलांचल का क्या महत्व है ?
लेखक
अपना उपजीव्य अपने इर्द-गिर्द से ही चुनता है । कोयलांचल की कालिख , ऊर्जा आदि
मेरे साहित्य को बनाते और सवाँरते रहे है । कोयलांचल मुझे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष
दोनों रूपों में प्रभावित करता रहा है , परंतु जब मैं कोयलांचल के बाहर निकला तो
अन्य समस्याएँ अधिक महत्वपूर्ण लगने लगीं । दूसरी ओर कोयलांचल की पूर्ण अर्थवत्ता
का दोहन अभी तक नहीं हुआ है , क्योंकि अधिकत्तर लेखक दूसरे क्षेत्रों से आते है ;लेकिन मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है ।
4. क्या हिंदी में कोयलांचल की समस्याओं पर सर्वप्रथम आपने ही लिखा
है ?
नहीं ,
जहाँ तक मेरी जानकारी है – मुझसे पहले दामोदर सदन और गुलशन नंदा ने एक-एक उपन्यास
लिखा है और कथाकार राधाकृष्ण ने एक कहानी लिखी हैं ।
5. वे कौन-से कारण थे , जिन्होंने आपको कोयलांचल की समस्याओं पर बार-बार
लिखनें को प्रेरित किया ।
मेरा बस चले तो मैं बार-बार लिखता रहूँ कोयलांचल
पर । कोयलांचल की जितनी समस्याएँ प्रकट में दिखाई पड़ती है , यथार्थ में उससे कहीं
अधिक समस्याएँ हैं । मोटे रूप से कोयलांचल पर - सावधान ! नीचे आग है (1986) , धार
(1990) , पाँव तले की दूब (1995) उपन्यास लिखे गए है , ये तीनों तीन तरह से डील
करते है । एक और वृहद उपन्यास आदिम कोयला खनन की समस्या पर लिखा जाना बाकी था ,
लेकिन अब वह शायद ही संभव हो ; चूँकि समस्याएँ है , इसीलिए
समस्याएँ बार-बार मजबूर करती है , अपने पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए ।
6. आपकी रचनाओं में वर्णित कोयलांचल की कथाभूमि वास्तविक है या
काल्पनिक ।
कोयलांचल
पर हमनें जो लिखा है वो वास्तविक है , नाम बदले हुए है ; लेकिन उसके साथ-साथ कुछ वास्तविक नाम भी जुड़ जाते है , जो उन पुराने संदर्भों को
जीवंत बनाते है ।
7. आप अपनी रचनाओं को शोध
की प्रक्रिया मानते हैं । ऐसे में कोयलांचल संबंधी रचनाओं के लिए आपने किन शोध
प्रक्रियाओं को अपनाया ।
हमने कोई
प्रयोग नहीं किया है , हमने जो देखा – पात्रों के माध्यम से , स्थितियाँ उत्पन्न
करने के माध्यम से , परिवेश गढ़ने के माध्यम से ; हमने वे चित्र प्रस्तुत किए । इसे कोयला निकालने का
जो तरीका था , उस पर एक तरह से टिप्पणी भी मान सकते है । मैंने प्रयोग नहीं किया ,
मैंने चीजों की खोज की, खाली । मैं शोधार्थी जरूर रहा हूँ , लेकिन उन अर्थो में
शोधार्थी नहीं रहा हूँ , जहाँ कोई निष्कर्ष निकले । कई बार तो निष्कर्ष निकलते ही
नहीं है । मैं समस्या(रोग) के आभ्यांतरिक कारणों को समझना चाहता हूँ ; जैसे अल्ट्रासोनोग्राफी में होता है । प्रयोग जो है ,लेखन के शिल्प में
है ।
8. आपकी शोध की प्रक्रिया और प्रयोगवादियों के सत्यान्वेषण में क्या
साम्य-वैषम्य है ?
मेरे शोध
की प्रक्रिया सत्य का अनुसंधान ही तो है , माने जो ऊपर-ऊपर दिख रहा है उसका
वास्तविक चेहरा सामने लाना । हमने जो महसूस किया है उसको लिखा , लेकिन हम कोई
निष्कर्ष निकालने या कोई सलाह देने की स्थिति में नहीं रहे ।
9. कोयलांचल के चित्रण में साहित्यकार संजीव को रसायनज्ञ संजीव से
क्या मदद मिली ?
ये सारी
चीजें ठीक-ठीक बताई नहीं जा सकती । मैं विज्ञान का छात्र था और प्रयोगशाला में
कोयले की उपयोगिता से संबंधित कई काम करता था , परंतु साहित्य कोयले की उपयोगिता
से आगे उसके(कोयले के) सारे अनुषंगों को लेकर चलता था – जोखिम कतने हैं , कैसे कोयलांचल
में अपसंस्कृति फैल रही है , कैसे लोगों की उम्र छोटी होती जा रही है आदि । दुनिया
में कोई भी चीज़ साहित्य समा सकती है , बशर्ते वो साहित्य की शर्तो के अनुसार आए ।
मैं इस तथ्य का कायल रहा हूँ , इसीलिए अपने स्थूल और प्रतीक में, मैं कोयले को
बार-बार अपनी रचनाओं में गढ़ता रहा हूँ ।
10. कोयलांचल में कोल-माफिया की दहशत
एक भयावह सच्चाई है । कोयलांचल पर लिखते समय आपने इस दहशत को कितना महसूस किया ?
कोल-माफिया
की गुंडागर्दी कोयलांचल का जीवन सत्य है , उससे कोई कैसे किनारा कर सकता है ।
मैंने कई बार इसे नजदीक से महसूस किया है । लोग समझते थे कि मैं बड़ा लेखक हूँ ,
तो लोगों की नज़र में सम्मान आ जाता।पर यह संयोग ही है कि मैं कोल-माफिया की
गिरफ्त से बचा रहा ।
11. कोयलांचल को छोड़ दिल्ली प्रवास करना आपके लिए कैसा रहा ?
दिल्ली
प्रवास के अपने फायदे थे , वहाँ से दिल्ली को केन्द्र बनाकर मैं देश के किसी भी
भाग में आ-जा सकता था । कोयलांचल से मुझे जितना रचनात्मक दोहन करना था , उतना
मैंने प्राय: कर लिया । दिल्ली जाकर ही कोयलांचल से इतर अंचलों की समस्याओं पर मेरी
दृष्टि पड़ी , लेकिन जो सुकून कोयलांचल के शुरूआती स्ट्रगल में था ; वो दिल्ली में नहीं मिला ।
12. बांगर कला(जहाँ आपका जन्म हुआ), कुल्टी(जो आपकी कर्मभूमि है) तथा
दिल्ली(जिसने आपको हिंदी कथा-साहित्य के केन्द्र में ला दिया) आदि में से कौन-सा
स्थान आपको सर्वाधिक प्रिय है और क्यों ?
यह कहना
मुश्किल है । तीनों की अपनी-अपनी महत्वपूर्ण भूमिका रही है , मेरे जीवन में ।वैसे
ज्यादातर जीवन कोयलांचल में ही बीता ।
13. झारखण्ड राज्य के गठन और संथाली भाषा को संवैधानिक दर्जा मिलने के
बाद , वहाँ के आदिवासियों का जीवन स्तर कितना बदला है ?
मिश्नरी
शिक्षा के कारण शिक्षित तबके में हुए परिवर्तन को हम पूरे आदिवासी समाज पर लागू
नहीं कर सकते हैं । अशिक्षित तबके के आदिवासियों का जीवन स्तर अभी भी वैसा ही है ।
झारखंड में बहिरागत लोगो का वर्चस्व है ।
14. खदानों के राष्ट्रीयकरण के समानांतर
आपके द्वारा प्रस्तावित जनखदान का विकल्प अवैध खनन की समस्या का यर्थाथवादी समाधान
है या आदर्शवादी समाधान ।
अजय नदी
के किनारे पर स्थित - जनखदान एक वास्तविकता थी । उसके पूर्व कभी शंकर गुहा नियोगी
ने ‘बैला
डिला’ बस्तर में लौह-अस्यक क्षेत्र में प्राय: ऐसा ही प्रयोग किया
था , जहाँ प्रत्येक की आमदनी 2000 रूपये थी ; जो आर्थिक रूप से सुदृढ़ भी था । इसलिए
जनखदान को आदर्शवादी समाधान नहीं कहा जा सकता है।
15. खदान में जल-प्रलय के
दौरान ऊधम सिंह और उनके साथियों के इक्कीस दिनों तक के जीवन-मरण संघर्ष को आपने
कैसे अनुभूति की प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया ?
धनवाद के
पास चासनाला खदान में जल-प्रलय की घटना घटी थी। चंदनपुर चासनाला का ही प्रतिरूप है
। वह मेरे ही प्रतिष्ठान की कोलियरी थी । दुर्घटना के बाद बचे हुए लोगों का , मेरे
ही प्रतिष्ठान में पुर्ननियुक्ति हुई । उनके साथ मेरा रोज़ का उठना-बैठना था । फिर
मैंने हताहत परिवारों से संपर्क स्थापित किया , इसीलिए मुझे सच्चाईयों को ढूँढ़ना
नहीं पड़ा । वे स्वत: खुली पड़ी थीं अनुभूति की प्रामाणिकता के साथ मेरे इर्द-गिर्द । दूसरी ओर विज्ञान
के जिज्ञासु विद्यार्थी होने के कारण परकाया-प्रवेश और घुटन भरी मौत को समझने में
मुझे कोई परेशानी नहीं हुई । स्थानीय लोग और अखबार भी सहायक रहे ।
16. ऊधम सिंह आदि को बेबस मौत, आशीष को पागलखाने की कैद, अविनाश शर्मा
को कारावास, मैना को बुलडोजर के नीचे कुचलवाना ,सुदीप्त की आत्महत्या आदि के द्वारा
आप कोयलांचल के किस यथार्थ को सामने लाना चाहते हैं ?
कोयलांचल
में सूदखोरों , गुंडों का जो हॉरर है उसी हॉरर को सामने लाना चाहता था , जहाँ भीतर
आग धू-धू करके जल रही है , तो बाहर पेड़-पौधे आदि सब जल रहे हैं, जहाँ आदमी कुछ
पैसे के लिए नृशंस हत्यारा बनता जा रहा है , और वे कुछ पैसे भी दारू आदि में उड़ाये
जा रहे है । कोयले में जितनी लूट हुई है , उतनी लूट और कहीं नहीं हुई - ऐसा लोगों
का मानना है । तो मैंने जो चीजें देखीं , उन्हें कलात्मक रूप में प्रस्तुत भर किया।
17. कोयलांचल की समस्याओं पर 1983 में कालका नामक एक फिल्म आयी थी,
जिस पर आपका एक लेख भी है । इस लेख का क्या उद्देश्य है ?
पहले तो
यह जानना ज़रूरी है कि कालका फिल्म महान फ्रांसिसी उपन्यासकार एमिल जोला के
उपन्यास ‘जर्मिनल’ पर आधारित है , वो भी बिना नामोल्लेख या
आभार के । इस तरह यह एक चोरी थी । पता नहीं शत्रुघ्न सिन्हा को इसका पता था या
नहीं या यह चोरी स्क्रिप्ट लेखक तक ही सीमित थी । दरअसल मैं अपने लेख के माध्यम से
इस सच्चाई को उजागर करना चाहता था , जिसे मैंने बखूबी किया ।
18. चासनाला दुर्घटना पर आधारित फिल्म - काला पत्थर(1979) और उसी
दुर्घटना पर आधारित उपन्यास - सावधान ! नीचे आग है (1986) पर बनी टेलिफिल्म – ‘काला हीरा’ में से आप किसे चासनाला दुर्घटना की
यथार्थ अभिवयक्ति मानते है और क्यों ?
‘काला पत्थर’ एक बम्बईया मसालें की फिल्म है , जो
अपने दायित्व के प्रति निष्ठावान नहीं है और ‘काला हीरा’ मेरे उपन्यास ‘सावधान ! नीचे
आग है’ मे वर्णित इनक्वयरी कमीशन तक ही सीमित है । इस तरह
दोनों में कोई भी कोयलांचल के हॉरर को व्यक्त नहीं कर पाते हैं ।विपिन कुमार के
भारती प्रोडक्शन की टेलिफिल्म ‘काला हीरा’ को सीरियल के रूप में पेश किया जाना था , जो इस घूसखोर व्यवस्था में संभव
नहीं हो पाया ।
19. पहली बार जब आपने कोयलांचल पर आधारित इलियास अहमद गद्दी की उर्दू
रचना -‘फायर एरिया’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलने की
खबर सुनी तो आपको कैसा लगा ?
अच्छा
नहीं लगा ।
20. नामवर सिंह आपकी रचनाओं को ‘यथातथ्य का शिकार’ मानते हैं ,
जिसका सार्थक उदाहरण- सावधान ! नीचे आग है (1986) है । इस
संर्दभ में आप क्या कहना चाहते है ?
नामवर
सिंह को कोयलांचल के बारे में क्या मालूम ? वे कविता के आलोचक हो सकते है ,
उपन्यास के नहीं ; तब कोयलांचल के उपन्यास पर उनके किसी
वक्तव्य को , हम अंतिम बात कैसे मान लें ?
21. राजेन्द्र यादव का मानना है कि ‘संजीव के यहाँ संघर्ष करते
हुए लोग तो हैं लेकिन प्यार करते लोग नहीं हैं ।’ इस संदर्भ
में आप क्या कहना चाहते है ?
ऐसा नहीं
है , राजेन्द्र जी ने मेरी सारी रचनाओं को पढ़ा भी नहीं है , फिर उनके दावे का
क्या मतलब !
22. उदय प्रकाश की टेपचू कहानी का ‘टेपचू’ और आपकी धार की ‘मैना’ दोनों
ही सर्वहारा वर्ग के संघर्षशील पात्र है । टेपचू को उदय प्रकाश ‘जिन्न’ मानते है तो आप मैना को डायन की बेटी यानी ‘डायन’, जो बार-बार मरकर भी कभी नहीं मरते हैं । ऐसा
क्यों होता है ?
यह
पात्रों की संरचना है । हम ऐसे संघर्षशील पात्रों की जिजीविषा को मरते हुए नहीं
देख सकते , उनके जीवट संघर्ष को लांक्षित नहीं कर सकते । मेरा ख्याल है कि उदय
प्रकाश के साथ भी यही बात है ।
23. कोयलांचल पर लिखित कथा – साहित्य में
आपने लगातार नवीन संरचना को क्यों अपनाया है ?
नवीनता के लिए , ताकि ताज़गी बनी रहे ।
24. ‘सावधान ! नीचे आग है’ की समाप्ति आपने ‘आल आउट ऐट थ्री फिफ्टी-वन’ के शीषर्क से ही क्यों किया ?
हमारा देश क्रिकेट और कीर्तन डूबा हुआ है । इसके सिवा हमारे
हुक्मरानों को कोई समस्या दिखाई ही नहीं पड़ती । इसीलिए क्रिकेट के ही प्रतीक ‘आल आउट ऐट थ्री फिफ्टी-वन’ पर ‘सावधान ! नीचे आग
है’ निष्पन्न होता है । यह एक विद्रूप है क्रिकेट और कीर्तन
के दीवाने मेरे देश के कर्णधारों के लिए ।
25. आज कोल इण्डिया एक महारत्न कम्पनी है
। ऐसे में खदान मज़दूरों की हालत में कितना सुधार होने की आशा की जा सकती है ?
कोयले के निष्काषन की तीन पद्धतियाँ होती है – डीप , इन्कलाइन और ओपेन
कास्ट । सबसे अधिक दुर्घटना डीप में होती है और सबसे कम ओपन कास्ट में । ऐसे में
सब कुछ घोटाला करनेवाले नीति-निर्धारकों के हाथ में है , वे जैसी स्कीम लायेगें ; वैसा ही नतीजा निकलेगा ।
दारू , जूआ , अपराध , अफसरशाही , कदाचार – इनसे मुक्त किए बिना कोयलांचल अभिशप्त
ही बना रहेगा , सिर्फ पगार बढ़ा देने से स्थिति में सुधार संभव नहीं ।
26. क्या आप अपने कोयलांचल पर लिखित कथा – साहित्य से
संतुष्ट हैं ?
नहीं , महान वैज्ञानिक फ्रैंकलिन के शब्दों में कहे तो – हमारे जीवन
की सबसे बड़ी विडम्वना यह है कि हम जल्दी बूढ़े हो जाते है और समझदार देर से होते
हैं । फिर मैं ज़रूरी सुविधओं से भी वंचित रहा । आज भी ............!
(रानीगंज के मुरलीभवन में 01.05.2014 को सुनील कुमार साव द्वारा
कथाकार संजीव का लिया गया साक्षात्कार)
सुनील कुमार साव
सहायक प्रबंधक( राजभाषा),एम एस टी सी लि. तथा शोध-छात्र (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
पता – 10, एस. पी. बैनर्जी रोड,आलमबजार ,
कोलकाता - 700035 मो. - 09432202321
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