शनिवार, 27 सितंबर 2014

चंद्रकांता संतति की समस्याएँ


चंद्रकांता संतति की समस्याएँ
                                                 सुनील कुमार साव

                        
सुनील कुमार साव
                         'चंद्रकांता संतति' किसी पारम्परिक - औपचारिक परिचय का मोहताज नहीं है ; और न उसका लेखक देवकीनंदन खत्री ।  हम सब जानते है, कि इसने भारत ही नहीं , भारत के बाहर भी अपार लोकप्रियता प्राप्त की है; पाठ्य माध्यम में ही नहीं , दृश्य-श्रव्य माध्यम में भी , जिसका प्रमाण
 इंटरनेट पर उपलब्ध 'चंद्रकांता संतति' 1 तथा 'सहारा वन' चैनल पर प्रसारित सुनील अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित सीरियल -'कहानी चंद्रकांता की'  है|

              'चंद्रकांता संतति' की समस्याओं के अंतर्गत तीन प्रमुख समस्याओं को समाहित किया गया है – पहला , पाठक की समस्या , दूसरा, अंतर्वस्तु की समस्या तथा तीसरा , शिल्प की समस्या ।

         चंद्रकांता संतति और पाठक की समस्या सुनकर चौकिए मत , क्योंकि यह समस्या आज की नहीं ; हमारी आपकी नहीं ।  हिंदी उपन्यास के आरंभिक दौर के अन्य उपन्यासकारों के साथ ही देवकीनंदन खत्री की भी समस्या थी ,  जिसका उन्होंने ऐसा सामाधान किया है कि आज तक हिंदी पाठक बनाने के लिये हिंदी विद्वान उनका नाम तोते की तरह रटते-रटाते रहते हैं

                        ऐसे में देवकीनंदन खत्री के पहले हिंदी पाठकों की स्थिति से अवगत होना आवश्यक हो जाता है । पढ़ने की परंपरा बहुत पुरानी है , पर चंद्रकांता संतति के पहले हिंदी पढ़ने की परंपरा बहुत कम थी । हिंदी क्षेत्रों के प्राथमिक स्कूलों में उर्दू का3 तथा माध्यमिक स्कूलों में अंग्रेजी का बोलबाला था ।4 विश्वविद्यालयी स्तर पर हिंदी भाषा की शिक्षा का तब तक आरंभ भी नहीं हुआ था । 1911  ई. तक भारत में केवल 7% लोग ही साक्षर थे । 5

                        दूसरी ओर भारत में सरकारी कार्यालयों की भाषा फ़ारसी के बाद अंग्रेजी हो गई थी | अदालतों में भी हिंदी की उपेक्षा कर उर्दू को अपनाया गया , और वह भी फ़ारसी लिपि में लिखित उर्दू ।6 ऐसे ही समय नागरी लिपि प्रचार का आन्दोलन चला । पर उसकी सफ़लता में भी बहुत समय लगा । 

                        यही नहीं , अंग्रेजों ने भारत के उद्योग-धंधों को नष्ट कर , सबको कृषि आश्रित बना दिया था , पर कृषि भूमि पर भी उनकी क्रूरतम दृष्टि ने किसानों के जीवन को दुःखमय बना दिया था ।7 होमचार्ज के नाम पर करोड़ों रुपए लूट लिए गए |8  इतना ही नहीं , 1800-1869 ई. के भीतर दस भयानक अकाल झेलने के कारण भारतीयों की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी |9 ऐसी स्थिति में सांस्कृतिक विपन्नता स्वयं स्पष्ट हो जाती है , जहाँ पुस्तक एक दुर्लभ विलास बन जाता हैं ।10
 
                        मुद्रण मशीनों के आगमन से हिंदी पत्रों के प्रकाशन का कार्य भी आरंभ हुआ , किन्तु आरंभ होने पर भी हिंदी के आरंभिक पत्र अल्पजीवी ही रहे । उन्हें 1500-2000 से अधिक पाठक कभी मिले ही नहीं |11 दूसरी ओर सम्पादक गण पत्र के चन्दे का रोना रोते ही रहते थे , पर पाठक मानने वाले न थे ।12 ऐसे में हिंदी पाठक की अविकसित पठन रुचि का स्पष्ट बोध हो जाता है ।  

                        दूसरी ओर चंद्रकांता संतति के पहले 'किसी के भी 1000 से आधिक के संस्करण नहीं निकले थे और किसी का भी 20 वर्षो के पहले दूसरा संस्करण प्रकाशित नहीं हुआ था । परीक्षा गुरू का दूसरा संस्करण दो ही वर्ष बाद निकला था , पर उसके मूल में लेखक का उत्साह था , पाठकों का नहीं । इसका भी तीसरा संस्करण 35 वर्ष बाद निकला , तात्पर्य यह हैं कि 1890 ई. के पूर्व हिंदी उपन्यासों के पाठक अत्यल्प थे ।'13

                        ऐसे में  चंद्रकांता संतति के लेखक के लिए भी हिंदी पाठकों का अभाव अच्छा नहीं था , पर देवकीनंदन खत्री ने पाठकों के सारे समीकरण ही बदल दिए ।  फ़लस्वरूप 14 वर्षों के भीतर चंद्रकांता के छः संस्करणों का प्रकाशन हुआ , वह भी लगभग 4000 प्रति प्रत्येक संस्करण के हिसाब से |14
 
         पठनरुचि में वृद्धि के साथ ही यह संख्या बढ़ती ही जा रही थी , जो तत्कालीन पाठकों की पठनरुचि में असाधारण परिवर्तन का सूचक था ।  हिंदी पठनरुचि के इस परिवर्तन को बनाये रखने तथा बढ़ाने का कार्य किया - चंद्रकांता संतति ने | वह भी 11 वर्षो की दीर्घावधि तक लगातार । ऐसे में चंद्रकांता संतति का महत्व चंद्रकांता के पाठक की पठनरुचि को लंबे समय तक पोषित करते रहने में ही है । यह चंद्रकांता संतति की पठनरुचि से पोषित पाठक ही हैं , जो आगे चलकर प्रेमचंद , जैनेन्द्र , यशपाल , अज्ञेय आदि के पाठक बनते हैं । 
  
                        ये पाठक देवकीनंदन खत्री को यौं ही राह चलते हुए नहीं प्राप्त हुए थे । इसके लिए उन्हें तत्कालीन पाठकों की सुरुचि सुख-सुविधा आदि का बहुत ध्यान रखना पड़ा था ,  जिसका प्रभाव चंद्रकांता संतति के अंतरग और बहिरंग दोनों पर पड़ा ।15 यही कारण है कि अपने पाठकों की निरंतर चिंता करनेवाले देवकीनंदन खत्री को पाठकीय दृष्टि से अतुलनीय सफ़लता प्राप्त हुई ।  

                  चंद्रकांता संतति की दूसरी समस्या है अंतर्वस्तु की समस्या ,  अर्थात इसके अंतर्वस्तु के निर्धारण की समस्या । इसके अंतर्वस्तु  को लेकर विद्वानों में मतभेद रहा है । कोई इसे तिलिस्मी , कोई रोमांस , कोई मनोरंजन कथा तो कोई साम्राज्यवाद-विरोधी रचना मानता है । ऐसे में चंद्रकांता संतति का मुख्य अंतर्विरोध ही इसका निर्णय करेगा कि आखिर इस रचना की अंतर्वस्तु क्या है

         कुछ आलोचक चंद्रकांता , चंद्रकांता संतति और भूतनाथ को एक ही रचना मानते है ।16 फलस्वरूप वह एक विशालकाय रचना बन जाती है , जिसके समग्र मूल्यांकन में भूल होना स्वाभाविक है । दूसरी ओर कुछ आलोचक चंद्रकांता पढ़ कर ही चंद्रकांता संतति संबंधी फतवे देने लगते है । ऐसे में जब देवकीनंदन खत्री स्वयं तीनों उपन्यासों को एक नहीं मानते है , तब हमें भी अपना पूर्वाग्रह छोड़ देना चाहिए ।

         चंद्रकांता संतति को तिलिस्मी कथा मानने वाले तिलिस्म को ही उसकी प्रधान अंतर्वस्तु मानते हैं पर चंद्रकांता संतति में आकर तिलिस्म के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है । उसे अब बेसिर-पैर की जादूई करतब के स्थान पर टैक्नोलॉजिकल एक्सिलैन्स के रूप में देखा जाने लगा है , अर्थात बटन दबाया और काम चालू ।17  

                           देवकीनंदन खत्री ने अपने समय के अनेक वैज्ञानिक आविष्कारों को तिलिस्म से जोड़ दिया था ।  फ़लस्वरूप उनका तिलिस्मी वर्णन सामाजिक यथार्थ की ओर मुड़ जाता है | फिर हम चंद्रकांता संतति को कैसे प्रचलित अर्थ में तिलिस्मी कथा कह सकते हैं ।  इसी तथ्य को सुस्पष्ट करते हुए, प्रदीप सक्सेना लिखते है, ‘‘तो फ़िर क्या है जिसे तिलिस्म में खतिया हैं सज्जनवृंद ! और आँख मीच कर कोस रहे हैं - तिलिस्मी उपन्यासों के जनक ! तिलिस्मी उपन्यासकार !!  संभवत: वह आर्किटेक्चर ही है जो तिलिस्म का भ्रम पैदा करता है । ’’18 इस भ्रम से मुक्त होकर ही आलोचक-वृंद चंद्रकांता संतति का सठीक मूल्यांकन कर सकेंगे । 
   
                    अब प्रश्न उठता है कि जब चंद्रकांता संतति का तिलिस्म केंद्रीय अंतर्विरोध नहीं है , तो तिलिस्म क्या है ? इस समस्या का समाधान करते हुए प्रो. प्रदीप सक्सेना लिखते हैं , ‘‘क्या तिलिस्म चंद्रकांता संतति का मुख्य अंतर्विरोध हैं ? या केंद्रीय अंतर्विरोध का मुख्य पहलू तो पाएंगे कि वह मुख्य पहलू ही है , न कि स्वयं केंद्रीय अंतर्विरोध |’’19 अर्थात तिलिस्म चंद्रकांता संतति के केंद्रीय अंतर्वस्तु का मुख्य पहलू है । ऐसे में चंद्रकांता संतति के केंद्रीय अंतर्वस्तु को तिलिस्म मानना गलत है
   
            कुछ विद्वानों ने चंद्रकांता संतति के अंतर्वस्तु को प्रेमकथा माना है , वे इसके लिए इंद्रजीत-किशोरी , इंद्रजीत-कमलीनी , आनंद-कामिनी , आनंद-लाडली के प्रेम का उल्लेख करते है , पर यहाँ ध्यान देना चाहिए की चंद्रकांता संतति में प्रेम का स्वरूप कैसा है
        
            जैसा कि हम जानते हैं कि प्रेम कथाओं में वियोगवस्था का वर्णन बहुत ही विश्वसनीय और मार्मिक ढ़ग से किया जाता है , जिससे प्रेम-कथा की प्रधान अंतर्वस्तु का बोध होता है , पर देवकीनंदन खत्री इंद्रजीत-किशोरी की वियोगवस्था का वर्णन करते समय प्रेम का मजाक उड़ाते हुए लिखते हैं , ‘‘ इश्क भी क्या बुरी बला है । हाय ! इस दुष्ट ने जिसका पीछा किया उसे खराब करके छोड़ दिया और उसके लिए दुनिया भर के अच्छे पदार्थ बेकाम और बुरे बना दिए । ....खाना पानी हराम हो जाता है , मिश्री की डली जहर मालूम होती है । .... दोस्तों की नसीहतें जिगर के टुकड़े टुकड़े करती हैं , जुदाई की आग में कलेजा भुन जाता है ।’’20 यही नहीं पूरी रचना में बीसियों जगह ऐसे वर्णन आपको देखने को मिल सकते |

           चंद्रकांता संतति में भी किशोरी , इंद्रजीत के रूप में भैरोसिंह को देखकर तथा इंद्रजीत , अंगूठी में किशोरी का रूप देखकर ही एक-दूसरे के प्रेम में दीवाने हो जाते है । आज ऐसे परंपरागत वाचिक कहानियों का प्रेम हमारे लिए आश्चर्य की वस्तु हो गई है । इस आश्चर्य को स्पष्ट करते हुए राजेन्द्र यादव लिखते है , ‘‘परंपरागत वाचिक कहानियों का यह प्यार मुझे हमेशा ही आश्चर्य से भर जाता है । किसी राजकुमार ने नदी में बहते किसी के खूबसूरत बाल देखे , कहीं अगुंठी-कंगन मिल गये और लीजिए , उसके प्यार में पागल हैं , बेहोश हो रहे हैं , घर-भर को सिर पर उठाये हैं , और आसनपाटी लिये पड़े है या पहाड़-जंगलों की खाक छान रहे हैं । .... कुँवर इंद्रजीतसिंह इसी परंपरागत ढंग से अनुपस्थित , ऐवजी (या बाई प्रॉक्सी) प्रेम में पड़ते है ।’’21 

         वस्तुतः इतना ही कहा जा सकता है कि चंद्रकांता संतति का केंद्रीय अंतर्वस्तु प्रेम कथा भी नहीं है , ज्यादा से ज्यादा वह केंद्रीय अंतर्वस्तु का दूसरा मुख्य पहलू हो सकता है । 
        
        चंद्रकांता संतति को मनोरंजन कथा भी कहा जाता है , और मनोरंजन होने के कारण इसे निम्न श्रेणी के साहित्य में शामिल कर लिया जाता है , साथ ही मनोरंजन जितना आज आवश्यक है , उससे कहीं अधिक संचार-क्रांति के पहले प्रस्फुटन प्रिट-मीडिया के आगमन के समय था , जिसे पूर्ण किया - चंद्रकांता संतति
          
        इसके अतिरिक्त राजेन्द्र यादव यह भी बताते है कि चंद्रकांता वर्ग के उपन्यासों में मनोरंजन के पीछे समय की आवाज भी सुनी जा सकती है , जिसे स्पष्ट करते हुए वे लिखते है , ‘‘उपन्यास शुद्ध काल्पनिक है और सिर्फ़ मनोरंजन के लिए लिखा गया है , यह तर्क या घोषणा अपनी जगह भी उतनी ही सही है ,  मगर लेखक की कल्पना और पाठक के मनोरंजन के पीछे भी तो कान लगाकर  समय की आवाज सुनी जाती है ।’’22 यह समय की आवाज चंद्रकांता संतति के अंतर्वस्तु का प्रधान अंश है , जिसकी अवहेलना ही चंद्रकांता संतति के अंतर्वस्तु की अवहेलना है ।

           अब समस्या यह है कि जब चंद्रकांता संतति का केन्द्रीय अंतर्वस्तु तिलिस्म , प्रेम या मनोरंजन नहीं है , तो वह केन्द्रीय अंतर्वस्तु क्या है ? जिसके प्रमुख पहलूओं के रूप में तिलिस्म , प्रेम और मनोरंजन को जोड़ा गया है ।
  
          एक ही काल में भारतेंदु एवं उनके मण्डल के रचनाकार जब साम्राज्यवादी ताकतों के अन्याय का विरोध कर रहे थे ।  तब बाबू देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति कैसे अपने दायित्व से मुँह मोड़ लेती ।  उसका रास्ता अलग हो सकता है , पर लक्ष्य एक ही था - साम्राज्यवादी अन्याय का विरोध , जिसे स्पष्ट करते हुए प्रदीप सक्सेना लिखते हैं , ‘‘एक सिक्के के दो पहलू हमारे सामने पूरी तरह स्पष्ट है । वह साम्राज्यवादी शक्तियों की लूट खसोट का - यानी अंग्रेजों का आर्थिक शोषण और सबल संस्कृति का लदाव । ... इसी का विस्तार है अपनी राष्ट्रीयता का प्रथम सोच जिसके लिए भारतेन्दु एवं उनके मण्डल के सदस्यों का सृजन प्रमाण है , लेकिन जो दूसरा पहलू है शुद्ध पुनरूथानवाद का , जिसका आधार देश का अतीत है - बहुत हद कल्पित अतीत - मोटे रूप में आर्य युग - इमारत समूची विदेशी विचार परंपरा पर प्रहार और उसका बहिष्कार | यहां विदेश से तात्पर्य ब्रिटिश राज से ही लिया जाए । .... इसका जो बहिष्कार वाला पक्ष है , वह खत्री जी की इस संपूर्ण रचना-यात्रा में समाया हुआ है ।’’23 ऐसे में यह कहना की चंद्रकांता संतति समाज निरपेक्ष रचना है , तो मात्र अपना ही उपहास करना है । 

           चंद्रकांता संतति साम्राज्यवाद विरोधी नवजागरण के संदेश का वाहक है , जिसने स्त्री-पुरुष , हिंदू-मुस्लिम , ब्राह्मण-शूद्र , हिंदी-उर्दू आदि अनेक विभेदों से संघर्ष किया , कारण प्रगति विरोधी तत्वों को त्यागे बिना साम्राज्यवाद से मुकाबला नहीं किया जा सकता है , तो उसे परास्त करना असंभव ही था । ऐसे में राष्ट्रभाषा की उन्नति , प्रजावत्सल राजा की चाह , व्यर्थ के भेदभावों से संघर्ष , नई के नारियों का आगमन , भूतनाथ जैसे मध्यवर्गीय पात्रों की नेकनामी वाली स्वतंत्र जिंदगी की चाह आदि साम्राज्यवाद विरोधी स्वरूप को ही सामने लाती है ।  यह विरोध ही भारतीय जनता में आशा और उत्साह का संचार कर स्वाधीनता की चाह का बीजारोपण करती है , जिसका पल्लवन प्रेमचंद की रचनाओं में देखने को मिलता है । 

            चंद्रकांता संतति की तीसरी प्रमुख समस्या है शिल्प की समस्या । किसी भी कृति में शिल्प का महत्व अंतर्वस्तु के महत्व से बिल्कुल कम नहीं होता ।  ऐसे में चंद्रकांता संतति के शिल्प संबंधी महत्व को स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है ।

            हिंदी आलोचना में जब भी चंद्रकांता संतति की शिल्प संबंधी चर्चा आरम्भ हुई ; तब वह चर्चा किसागोई से आगे नहीं बढ़ पायी है । हिंदी उपन्यास पर सबसे अधिक लिखनेवाले गोपाल राय ने उपन्यास का शिल्प तथा उपन्यास की संरचनानामक पुस्तकें लिखी हैं , पर उनका भी उपन्यास ज्ञान चंद्रकांता संतति के शिल्प में किसागोई के अलावा कुछ देख नहीं पाता । यही नहीं , कई आलोचक गण तो ये भी भूल जाते हैं कि चंद्रकांता संतति का शिल्पगत महत्व भी हो सकता है ।  वे उसकी पाठकीय रुचि का, अंतर्वस्तु के महत्व का अध्ययन तो करेंगे , पर शिल्प संबंधी अध्ययन को छूयेगें भी नहीं । इस संबंध में एकमात्र प्रयास भरत सिंह का दृष्टिगोचर होता है , जिसमें चंद्रकांता संतति का शिल्प संबंधी अध्ययन किस्सागोई का अतिक्रमण कर उसके फ़ैंटेसीपरक अध्ययन की नई राह अपनाता है ।24  इसके पहले राजेन्द्र यादव और प्रदीप सक्सेना के आलेखों में फ़ैंटेसीपरक अध्ययन की ओर संकेत भी दृष्टिगोचर होता है ।

        चंद्रकांता संतति में प्रयुक्त फैंटेसी को हम दो भागों में बांट सकते है , पहला - ऐयारी संबंधी फैंटेसी और दूसरा - तिलिस्म संबंधी फैंटेसी । 

        ऐयारी संबंधी फैंटेसियों में ऐयारों द्वारा आपनाए गए , रूपों का वर्णन है , जो रूप सामान्य परिस्थितियों में धारण करना असंभव माना जाता है , जिन्हें सच मानना , किसी भी सचेत मनुष्य के लिए आसान नहीं हो सकता है । ऐसे में इन आश्चर्यजनक रूपों से तत्काल यह कल्पना भी नहीं किया जा सकता है कि यह रूप धारण किए हुए ऐयार है । शिवदत्त के ऐयारों का शेर बनना , कमलिनी ऐयारा का राक्षसी रूप धारण करना , तिलिस्म के राजा गोपाल सिंह का कृष्णा जिन्न के रूप में तहलका मचाना , ऐयारा इंदिरा का पुतला बनना तथा तिलिस्म के राजा गोपाल सिंह का 25 ऐयारों द्वारा धारण रूप आदि , इसके उल्लेखनीय उदाहरण है । 

        यही नहीं , ऐयारी करने के लिए चंद्रकांता संतति में ऐयारों ने कई अजीबो-गरीब सामग्री का उपयोग किया है । ये सामग्री हमारे और आपके जीवन में सहजता से प्राप्त नहीं हो सकती है , पर फ़ैंटेसी की दुनिया में ये सब सरल-सहज है । इनमें बेहोश करने के लिए बुकनी , खुशबूदार चिट्ठी , गैस की बोतल , तिलिस्मी तमंचे की गोली आदि है , तो होश में लाने के लिए लकलका , खुशबूदार चिट्ठी , गैस की बोतल , जमीन पर पटकनेवाला गोला आदि है । 

        चंद्रकांता संतति के तिलिस्म संबंधी फैंटेसी में चुनारगढ़ , रोहतासगढ़ तथा जमानिया के तिलिस्मी करामातों की फ़ैंटेसी का वर्णन अधिक हुआ है । जमानिया का तिलिस्म ही चंद्रकांता संतति के मुख्य कथावस्तु से जुड़ा हुआ है । शेष दोनों तिलिस्म भी जमानिया के तिलिस्मी सुरंगों से जुड़कर एक वृहद तिलिस्म का निर्माण करते हैं , क्योंकि इन तीनों तिलिस्मों को बनाने वाले इंद्रजीतसिंह और गोपालसिंह के पूर्वज महाराज सूर्यकांत और उनके गुरू सोमदत्त एक ही थे । 

     तिलिस्म संबन्धी फैंटेसी के अंतर्गत तिलिस्मी दुनिया की आश्चर्यजनक घटनाओं या वस्तुओं को शामिल किया गया है , जो हमारे वास्तविक जीवन में संभव नहीं है , जिस पर हम आंख बंद करके विश्वास नहीं कर सकते हैं । इनमें तालाब वाला तिलिस्मी मकान , तिलिस्मी बाजा , चलती - फ़िरती तिलिस्मी तस्वीरें , दीवारे कहकहा तथा अन्य तिलिस्मी सामग्री आदि प्रमुख है ।                 
    इस तरह देवकीनंदन खत्री पाठक , अंतर्वस्तु और शिल्प की समस्याओं से निरंतर संघर्षरत रहते हैं । इन्हीं संघर्षों से जूझते हुए खत्री जी चंद्रकांता संतति में एकाधिक नवीन परिवर्तन करते हैं । ये नवीन परिवर्तन पाठकों के हितार्थ अंतर्वस्तु और शिल्प दोनों में घटित होता है । यही कारण है कि चंद्रकांता संतति मनोरंजन के लक्ष्य से आरंभ होकर लोकमंगल के लक्ष्य की ओर मुड़ जाती है , जिससे शिल्प का स्वरूप भी परिवर्तित होता है । इन्हीं संघर्षों का परिणाम है कि देवकीनंदन खत्री को हिंदी के प्रथम उपन्यास सम्राट के रूप में ठीक उसी तरह याद किया जाता हैं, जिस तरह भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम(1857 की क्रांति) को याद किया जाता है ।
  
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1. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1079&pageno=1
2. http://dainiktribuneonline.com/2011/06/प्रेम-की-अनोखी-दास्तान-है/
3. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 250.                       
4. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 166. पर अवतरित (हिंदी प्रदीप - जनवरी-मार्च,1890)                       
5. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 248. पर अवतरित(Progress of Litracy in various countries ,pages-110 )                      
6. राय , गोपाल , हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2005 , पृ - 18.
7. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 122.                       
8. Dutta , R. Palme , India Today , Manisha Granthalay,Calcutta ,1970 , Page – 131.
9. राय , गोपाल , हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन , नयी दिल्ली ,2005 , पृ18-19.
10. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 259.                       
 11. वाजपेयी , अंबिका प्रसाद , समाचार पत्रों का इतिहास , ज्ञानमंडल लिमिटेड , बनारस , सं. 2010 . पृ -173.
12. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 182.                       
13. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 271.                       
14. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 270.                       
15. राय , गोपाल , हिंदी कथा साहित्य और उसके पाठकों की रूचि का प्रभाव , ग्रंथ निकेतन , पटना , 1965 , पृ - 275.                       
16. यादव , राजेन्द्र , दयनीय महानता की दिलचस्प दास्तान : चंद्रकांता, आलोचना , नामवर सिंह(सं.), अप्रैल-जून , पृ - 04 .
17. यादव , राजेन्द्र , दयनीय महानता की दिलचस्प दास्तान : चंद्रकांता, आलोचना , नामवर सिंह(सं.), अप्रैल-जून , पृ - 09 .
18. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ – 27.
19. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ – 38-39.
20. डॉ.युगेश्वर(सं.) , देवकीनंदन खत्री समग्र - चंद्रकांता संतति , हिंदी प्रचारक संस्थान , वाराणसी , 1993 , भाग – 24 , बयान – 8 , पृ - 246.
21. यादव , राजेन्द्र , दयनीय महानता की दिलचस्प दास्तान : चंद्रकांता, आलोचना , नामवर सिंह(सं.), अप्रैल-जून , पृ - 13 .
22. यादव , राजेन्द्र , दयनीय महानता की दिलचस्प दास्तान : चंद्रकांता, आलोचना , नामवर सिंह(सं.), अप्रैल-जून , पृ - 13 .
23. सक्सेना , प्रदीप , तिलिस्मी साहित्य का साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र , शिल्पायन , दिल्ली , 2007 , पृ – 47.
24. सिंह , भरत , देवकीनंदन खत्री के तिलिस्मी उपन्यास :  फैंटेसी का मायालोक , गोदारण , आलोक सिंह(सं.), अक्टूबर-दिसंबर-2010, पृ -132.
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                                              सुनील कुमार साव
 सहायक प्रबंधक( राजभाषा),एम एस टी सी लि.  तथा शोध-छात्र (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
    पता – 10, एस. पी. बैनर्जी रोड,आलमबजार ,
 कोलकाता -  700035 मो. - 09432202321