संजीव के कथा-साहित्य में झारखंड के आदिवासी
सुनील कुमार साव
भारत और झारखंड (भारत का 28वॉ राज्य) में एक समानता है ; दोनों ने स्वराज के लिए लंबा संघर्ष किया है। भारत ने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष किया है ; तो झारखंड ने अंग्रेजी शासन के बाद भी दिकू शासन के विरुद्ध । अपने लंबे संघर्ष के दौरान भारतीय और झारखंडी जनता दोनों ने अपनी प्रत्येक समस्याओं का समाधान स्वराज में ही माना था ; परंतु न भारतीय जनता को उसके सपनों का स्वराज मिला और न ही झारखंडी आदिवासियों को | दोनों स्थानों पर आजादी के तुरंत बाद स्वराज के सपनों की राजनीति की पराजय हुई ।
स्वराज के 14 वर्षों बाद भी झारखंड पिछड़े राज्यों की सूची में पड़ा हुआ है । आदिवासियों के सपनों का स्वराज निर्मम-खनन , औद्योगिकरण , उदारीकरण और भ्रष्टाचार की अंधी दौड़ में खो गया है । खनिज और वन संपदा बहुल इस क्षेत्र पर देश-विदेश के पूंजीधारी-गिद्धों की नज़र लग गयी है । कुछ गिद्धों ने निर्ममता से खनिज और वन संपदा का उपभोग कर लिया है ; तो कुछ अपनी बारी के जुगार में लगें हैं ।
झारखंड का इतिहास विद्रोहों का इतिहास है । जब भी अन्याय का आतंक बढ़ा है , झारखंडी आदिवासियों ने उसका डटकर मुकाबला किया है । पूंजीधारी-गिद्धों के विरूद्ध लड़ना, इस क्षेत्र की परंपरा रही है । इसी परंपरा को ध्यान में रखते हुए ‘पाँव तले की दूब’ उपन्यास का केंद्रीय पात्र सुदीप्त ‘झारखंड आंदोलन क्या है ?’ का जबाव देते हुए कहता है –‘‘ ये सदियों से उपेक्षित आदिवासी-बहुल संप्रदाय के अधिकार और इज्जत की लड़ाई है ।.... दरअसल पृथक झारखंड राज्य की माँग आज की नहीं, जयपालसिंह के नेतृत्व से भी पहले इसकी जड़ें इस क्षेत्र के जुझारू कोल,मुण्डा, संथाल, औराँव, बाउरी,भुइयाँ आदि आदिवासी जातियों की सदियों पुरानी संघर्ष-परंपरा में हैं । अपने देश की किसी भी राष्ट्रीयता के आंदोलन से ज्यादा राष्ट्रीय है यह! यहाँ मुग़लों को भी मुँह की खानी पड़ी थी । अंग्रेजों के भी दाँत खट्टे हो गए थे । रानी सिनगी वई, विरसा मुण्डा, चोटी मुण्डा, सिधू-कानू और इधर अलबर्ट एक्का कोई एक नाम नहीं । सन् 1920 में ही छोटानागपुर उन्नत समाज और सन्थाल परगना में लॉवीर जैसी सभाएँ थीं । ’’1 ऐसे में झारखंडी आदिवासियों की संघर्ष-परंपरा को दरकिनार करना , अपनी अल्पज्ञता का प्रदर्शन मात्र है।
आदिवासी साहित्य रचना की दृष्टि से हिन्दी भाषा ने राष्ट्रभाषा की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है | मूक आदिवासियों के दर्द को राष्ट्रभाषा हिन्दी के साहित्यकारों और अनुवादकों ने यथासंभव समझने - समझाने का प्रयास किया है । जिसका प्रमाण भारत के विविध क्षेत्रों में बसे आदिवासियों की समस्याओं पर रचित उपन्यास और आदिवासी भाषा लिखित साहित्य के अनुवाद हैं । राष्ट्रभाषा के साहित्यकारों ने यथासम्भव देश के कोने-कोने में बसे आदिवासियों की समस्याओं को अपने उपन्यासों के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना दिया है। इनमें देवेन्द्र सत्यार्थी की ‘ब्रह्मपुत्र’(असम), बलभद्र ठाकुर की ‘मुक्तावली’(मणिपुर), ‘लहरों की छाती पर’(अंडमान एवं निकोबार) तथा ‘आदित्यनाथ’ (दार्जिलिंग), उदयशंकर की ‘सागर लहरे और मनुष्य’(मुंबई) हिमांशु जोशी की ‘महासागर में निकोबार द्विप’(नीकोबार), डॉ. एन रामन नायर की ‘सागर की गलियाँ’(केरल), कृष्णचंद्र शर्मा ‘भिक्खु’ की ‘रक्तयात्रा’(नागालैंड), श्री प्रकाश मिश्र की ‘जहाँ बाँस फूलते है’(मिजोरम) आदि उल्लेखनीय है । यही नहीं , बलभद्र ठाकुर ने ‘नेपाल की वो बेटी’(नेपाल) और बलवंत सिंह ने ‘राका की मंजिल’(अफ्रीका) आदि लिखकर देश के बाहर के आदिवासी समाज से भी हमारा परिचय करवाया है ।
हिन्दी प्रदेश को केंद्र में रखकर लिखे गए आदिवासी उपन्यासों का उल्लेख किया जाए तो उपन्यासों की एक लंबी सूची बन जाएगी | इनमें हरिराम मीणा, संजीव ,रणेन्द्र , पीटर पाल एक्का ,राकेश कुमार सिंह ,मनमोहन पाठक ,विनोद कुमार, श्याम बिहारी श्यामल, मधुकर सिंह, मैत्रेयी पुष्पा, शानी ,वीरेन्द्र जैन , राजेन्द्र अवस्थी, श्री प्रकाश मिश्र, रांगेय राघव, देवेन्द्र सत्यार्थी, योगेन्द्रनाथ सिन्हा, वृन्दावनलाल वर्मा , उदय शंकर भट्ट , मणि मधुकर, राकेश वत्स, शैलेश मटियानी, भगवानदास मोरवाल, शिवप्रसाद सिंह, कुरमा, श्रवण कुमार गोस्वामी, ब्रजनन्दन सहाय, लालबहादुर वर्मा, नारायण, जयप्रकाश भारती, श्याम व्यास, शिव कुमार श्रीवास्तव, श्याम परमार, नितीन कुमार, संतोष प्रीतम, सोहन शर्मा, पुन्नी सिंह, किशोर कुमार सिन्हा, तेजिन्दर आदि के आदिवासी उपन्यासों को शामिल किया जाना आवश्यक होगा ।
अब अगर कोई प्रश्न करे कि हिन्दी में सर्वाधिक आदिवासी उपन्यास किस राज्य को केंद्र बनाकर लिखे गए हैं ?, तो इसका स्पष्ट उत्तर होगा - झारखण्ड राज्य। झारखण्ड को कथा भूमि बनाकर संजीव ने ‘सावधान नीचे आग है !’, ‘धार’, ‘पांव तले की दूब’, रणेन्द्र ने ‘ग्लोबल गांव के देवता’, ‘गायब होता देश’, राकेश कुमार सिंह ने ‘जहाँ खिले है रक्त पलाश’, ‘पठार पर कोहरा’ , मनमोहन पाठक ने ‘गगन घटा गहरानी’, विनोद कुमार ने ‘समरशेष’, श्याम बिहारी श्यामल ने ‘धपेल’, मधुकर सिंह ने ‘बाजत अनहद ढोल’ आदि आदिवासी उपन्यास रचे हैं।
गैर-आदिवासी रचनाकार होने के कारण संजीव आदि के साहित्य को आदिवासी रचनाकार, आदिवासी साहित्य नहीं मानते है । उनका मानना है कि केवल आदिवासी ही आदिवासी साहित्य की रचना कर सकते हैं । जिसे स्पष्ट करते हुए , झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखाड़ा की महासचिव ,वंदना टेटे जेएनयू में 29 जुलाई 2013 को आदिवासी साहित्य पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में हिंदी के गैर-आदिवासी रचनाकारों के द्वारा रचित आदिवासी साहित्य के संबंध में कहती हैं- ‘‘आदिवासियों पर रिसर्च करके लिखी जा रही रचनाएं शोध साहित्य है, आदिवासी साहित्य नहीं. आदिवासियत को नहीं समझने वाले हिंदी के लेखक आदिवासी साहित्य लिख भी नहीं सकते. हमें याद रखना चाहिए कि आदिवासी समुदायों पर सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में हुए अधिकांश अध्ययन एक भ्रामक, नस्लीय और औपनिवेशिक तस्वीर पेश करते हैं. हिंदी साहित्य लेखन तो वैसे भी लेखकों का सेकेंडरी काम है. उनका प्राथमिक पेशा तो कुछ और होता है. ऐसे में टेबल, इंटरनेट, एंथ्रोपोलोजी की पुस्तकों और कुछ दिन आदिवासी इलाके में घूम-घामकर जुटायी गयी जानकारियों से कोई कैसे संवेदनशीलता के साथ आदिवासी जीवन की सच्ची कहानी बयान कर सकता है? वह भी उस स्थिति में जब वह न तो आदिवासियों की भाषा और न ही संस्कृति की कोई सामान्य समझ भी रखता है?’’2 ऐसे में सामूहिकता में विश्वास रखने वाले आदिवासी जब स्वयं आदिवासी और गैर-आदिवासी का विभाजन करते हैं, तो उनके आदिवासी दर्शन या आदिवासियत पर क्या वे स्वयं संदेह दर्ज नहीं करतें ?
मुझे इस बात में बिलकुल संदेह नहीं है कि आदिवासी द्वारा लिखा गया साहित्य आदिवासी साहित्य का प्रामाणिक दस्तावेज है , मगर यह कहना कि गैर-आदिवासी द्वारा रचित आदिवासी साहित्य, आदिवासी साहित्य नहीं है, यह कैसे माना जा सकता है ? गैर-आदिवासी द्वारा रचित आदिवासी साहित्य , आदिवासी द्वारा रचित साहित्य से उन्नीस हो सकता है , मगर वह आदिवासी साहित्य ही नहीं है, ऐसा कहना बिल्कुल गलत है ।
दूसरी ओर 14-15 जून 2014 को राँची में ‘आदिवासी दर्शन और समकालीन आदिवासी साहित्य सृजन’ विषय पर राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया गया । इसी ऐतिहासिक सेमिनार में वंदना टेटे ने आदिवासी साहित्य का 15 सूत्री ‘रांची घोषणा-पत्र’ जारी किया ,जिसके मूल तत्व हैं –
1. प्रकृति की लय-ताल और संगीत का जो अनुसरण करता हो.
2. जो प्रकृति और प्रेम के आत्मीय संबंध और गरिमा का सम्मान करता हो.
3. जिसमें पुरखा-पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल और इंसानी बेहतरी के अनुभवों के प्रति आभार हो.
4. जो समूचे जीव जगत की अवहेलना नहीं करें.
5. जो धनलोलुप और बाजारवादी हिंसा और लालसा का नकार करता हो.
6. जिसमें जीवन के प्रति आनंदमयी अदम्य जिजीविषा हो।
7. जिसमें सृष्टि और समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव हो.
8. जो धरती को संसाधन की बजाय माँ मानकर उसके बचाव और रचाव के लिए खुद को उसका संरक्षक मानता हो.
9. जिसमें रंग, नस्ल, लिंग, धर्म आदि का विशेष आग्रह न हो.
10. जो हर तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ हो.
11. जो भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और आत्मनिर्णय के अधिकार पक्ष में हो.
12. जो सामंती, ब्राह्मणवादी, धनलोलुप और बाजारवादी शब्दावलियों, प्रतीकों, मिथकों और व्यक्तिगत महिमामंडन से असहमत हो.
13. जो सहअस्तित्व, समता, सामूहिकता, सहजीविता, सहभागिता और सामंजस्य को अपना दार्शनिक आधार मानते हुए रचाव-बचाव में यकीन करता हो.
14. सहानुभूति, स्वानुभूति की बजाय सामूहिक अनुभूति जिसका प्रबल स्वर-संगीत हो.
15. मूल आदिवासी भाषाओं में अपने विश्व दृष्टिकोण के साथ जो प्रमुखतः अभिव्यक्त हुआ हो.3
यह घोषणा पत्र भारतीय आदिवासी साहित्य के इतिहास में मील का पत्थर है । इस घोषणा पत्र के माध्यम से आदिवासी दर्शन को समझने और समझाने की प्रक्रिया सरल हुई है। अब आदिवासी साहित्य और गैर-आदिवासी साहित्य का विभाजन जन्म के आधार पर न करके दर्शन के आधार पर किया जा सकेगा । ऐसे में गैर-आदिवासियों के साहित्य की परख अब उनके दर्शन के आधार पर होगी , न कि उनके आदिवासी होने और न हाने पर ।
राष्ट्रीय स्तर पर झारखण्ड के आदिवासियों की समस्याओं को चर्चा का विषय बनाने में कथाकार संजीव ने अग्रणी भूमिका निभाई है। कथाकार संजीव का झारखण्ड से बहुत गहरा संबंध है । वे कुलटी(पश्चिम बंगाल) के इस्को में 37 वर्षों तक रसायनज्ञ के पद पर कार्यरत थे । कुलटी पश्चिम बंगाल और झारखण्ड के सीमावर्ती क्षेत्र में स्थित है। कुलटी भारत के बृहदत्तम कोयलांचल गोंडवाना क्षेत्र का ही अंग है । गोंडवाना क्षेत्र की सर्वाधिक कोयले की खानें झारखण्ड में हैं, जिनमें लगातार औद्योगीकरण और विकास के नाम पर निर्ममता से खनन जारी है । फलस्वरूप इस क्षेत्र के आदिवासियों का जीवन बद से बदत्तर होता जा रहा है। जिसे स्थानीय निवासी होने के कारण कथाकार संजीव ने जीवंत रूप में देखा है, और केवल देखा ही नहीं, अपने कथा-साहित्य का विषय भी बनाया है ।
संजीव एक गैर-आदिवासी रचनाकार हैं ; जिन्होंने अपने उपन्यासों ‘सावधान ! नीचे आग है’ में भारत के सबसे बड़ी खान दुर्घटना - चासनाला खान दुर्घटना(1975), ‘धार’ में संताल परगना में स्थित तेजाब फैक्टरी के दुष्प्रभाव तथा जनखदान आंदोलन, ‘पाव तले की दूब’ में झारखण्ड आंदोलन आदि का वर्णन किया है ,तो अपनी कहानियों ‘टीस’ में विस्थापित शिबू का सँपेरा बनना, ‘आप यहाँ है’ में सरकारी अधिकारी का दोहरा चरित्र, ‘महामारी’ में चेचक की महामारी , ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ में सौंदर्य के नये प्रतिमान की खोज , ‘कन्फ़ेशन’ में विवाह के बाद आदिवासी आंदोलन को भूलने की प्रायश्चित, ‘जीवन के पार’ में आदिवासी प्रेम-कथा आदि वर्णन किया गया हैं ; जिनमें संथाल, उराँव, हो, गोंड, मुंडा आदि आदिवासियों के जीवन जगत की समस्याओं को अंकित किया गया है।
झारखण्ड एक खनिज और वन-सम्पदा बहुल राज्य है ।फलस्वरूप अधिकांश पूंजीपति, राजनेता, माफ़िया अपना-अपना हिस्सा बटोरने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का प्रयोग करने से पीछे नहीं हटते हैं। ऐसे में पैसे की ताकत से कानून और इंसानियत को कुचला जाता है। पैसे की भूख में आदमखोर, आदिवासियों की जमीन को येन-केन-प्रकारेण हथियाने और उन्हें विस्थापित करने का योजनाबद्ध कार्यक्रम आरंभ करते हैं। इन योजनाबद्ध तारीकों में से एक है, उन्हें नौकरी, पानी, स्कूल आदि का लालच देकर जमीन हथिया लेना , जिसका उल्लेख करते हुए, ‘सावधान ! नीचे आग है’ उपन्यास में आदिवासी झानू और काला माझी वृन्दावन कहते हैं – ‘‘आस्ते-आस्ते सारा जमीन दखल कर लिया हमारा, बोलो, हम कहा जाएगा, बोलो !’’….‘‘बोला नौकरी देगा, पानी देगा, स्कूल खोलेगा - ये कर देगा , वो कर देगा , सोना से मढ़ देगा । क्या किया, बोलो ?’’4 जब जमीन के बदले उन्हें कुछ नहीं मिला, तब आदिवासी पोना इसकी शिकायत लेकर मैनेजमेंट के पास पहुँचा ; तो उसे जमीन के बदले पिटाई मिली ,जिसका उल्लेख करते हुए पोना कहता –‘‘हम अपना मुसीबत बताने गया तो पोसे गुंडों से पिटवाया।’’5 ऐसे में आदिवासी कहाँ जाएँ ? किससे फरियाद करें ?
जमीन हथियाने का दूसरा तरीका ‘धार’ उपन्यास में अपनाया गया है , जहाँ फ़ैक्टरी के लिए जमीन दान देने वाले मैना के पिता(टेंगर) को भगत(महात्मा) और इस दान में बाधा बनने वाली मैना की माँ को डायन बना दिया जाता है ।6 ‘पाव तले की दूब’ उपन्यास में तीसरे तरीके से जमीन हथियाया गया है,जिसे लेहना-प्रथा कहते है।जिसे स्पष्ट करते हुए संजीव लिखते हैं – ‘‘दारू की लात और ज़रूरतमन्दों को सूद पर पैसे और अनाज देकर इन आदिवासियों की जमीन कुछ चालाक लोगों ने हथिया ली । इसे यहाँ लेहना-प्रथा कहते है।’’7 अब सवाल है आदिवासियों के जमीन का क्या हुआ ? क्या इस जमीन पर आदिवासियों के जीवन-जगत के अनुकूल उद्योग-धन्धों का विकास किया गया ? या विकास की अंधी दौड़ में इसे भुला दिया गया ।
आदिवासियों के जमीन पर बड़े-बड़े खदान, कारखानें, ताप-विद्युत प्रतिष्ठान आदि का निर्माण हुआ । खदानों से देश के विभिन्न उद्योग-धन्धों के लिए खनिज पदार्थ भेजा गया, ताप-विद्युत प्रतिष्ठानों ने कोयले से कारखानों में उद्योग-धन्धों के विकास के लिए बिजली उत्पन्न की । देश की जीडीपी बढ़ी , पूंजीपति, राजनेता, माफ़िया आदि सबने अपना-अपना हिस्सा बटोर लिया ; पर जमीन के मालिक आदिवासियों का क्या हुआ ? उन्हें क्या मिला ? इसे स्पष्ट करते हुए संजीव लिखते हैं-‘‘आज हालत ई कि नीचे कोइलॉरी के चलते ऊपर पानी ही नहीं टिकता । सिरिफ एक पानी के बगैर पिछलका धान मर गया ।तब कुआँ , तालाब, जोर(नाला) किसी में पूरा पानी नहीं कि पटा ही दें। पहले कम-से-कम परब-त्यौहार में दामोदर नेहा आते थे, अब ऊ हो सपना हो गया।...अलकतरा जइसन करिया भुजंग पानी । भूले-भटके पी लो तो सीधे सुरधाम ! ’’8 यानी जमीन तो गया ही साथ जल भी गया । ऐसे में जंगल बिना जल के कितने दिनों तक बच सकता है ? इस तरह आदिवासियों का जल, जंगल, जमीन तीनों लूट लिया गया ।
ऐसे में यह सवाल वाजिब है कि जब आदिवासियों का जल, जंगल, जमीन बर्बाद कर दिया गया ; तब आदिवासी अपना जीवन-निर्वाह कैसे करते होंगे ? जल बिना आदिवासियों की खेती भी बर्बाद हैं ,ऐसे में ‘‘धान भी दो-तीन महीने से ज्यादा नहीं खींच पाता ; चोरी से कोयला काटने-बेचने का काम भी पर्याप्त नहीं है, फिर दूर-दूर से ठेकेदार आते हैं, इन्हें सस्ती मजदूरी पर काम के लिए ढोर-डाँगरों की तरह हाँक ले जाते हैं। सोचिए, कितने आश्चर्य की बात है कि धान के खेत , इतनी कोलियरियाँ और छोटे से लेकर चित्तरंजन और कुबुल्स के बड़े कारखाने होते हुए भी इनकी जिंदगी में कोई सुरक्षा नहीं । ’’9 ऐसे में इनका जीवन अत्यधिक संघर्षमय हो जाता है। इनका संघर्ष कितना कष्टप्रद है , इसे स्पष्ट करते हुए ‘धार’ उपन्यास में आदिवासी मैना कहती है –‘‘ धन्न मनाऊँ रेल कम्पनी का बछड़ा-बकरा कट जाता और हम को भोज खाने मिल जाता । धन्न मनाऊँ रेलवई पुलिस का, हमको सीलतोड़ी कराता, हमरा बहिन बेटी माँ के साथ रंडीबाजी करता कि हमको दू-चार पैसा भेंटा जाता, धन्न मनाऊँ सरदार निहाल सिंह का कि हमरा चोरी हजम करके टरक से रेलवई कारखाना का कूड़ा हिंयाँ फेंकता कि हम लोहा-पीतल बीन-बान के उनको बेच के पेट चलाता , धन्न मनाऊँ महेन्दर बाबू का कि तेजाब का फैटरी खोल के हमरा कुछ आदमी को रोजी देता ,चाहे कुत्ता बनाके ही कायें न दे ।’’10 मैना की यह पीड़ा अधिकांश आदिवासी समाज की पीड़ा है । ऐसे में सिर्फ़ इतना ही कहा जा सकता है कि इन आदिवासियों के जीवन में विकास के नाम पर जो जहर घोला जा रहा है , उसे फ़ौरन बंद करना चाहिये । विकास के नाम पर विस्थापन, बेरोजगारी , भूखमरी, बीमारी आदि से आदिवासी त्रस्त हैं । तभी तो रामदयाल मुंडा कहने को बाध्य होते हैं कि – ‘‘आदिवासी जन के खिलाफ एक युद्ध लगातार चल रहा है. उसे विकास कहा जाता है. इस विकास ने आदिवासी धर्म, भाषा और संस्कृति को, उनकी पूरी पहचान को खतरे में डाल दिया है. इसलिए हम आदिवासी इस एकतरफा विकास (युद्ध) के विरोधी हैं और हमेशा रहेंगे.’’11 अगर झारखण्ड के आदिवासी इलाकों में विकास, इंसानियत को मिटाने का पर्याय बनता जा रहा हैं , तो यह निश्चय ही चिंता का विषय है। इस चिंता में आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों लोग शामिल हैं । यही कारण है कि ‘सावधान ! नीचे आग है’ में ऊधमसिंह और आशीष, ‘धार’ में अविनाश शर्मा, ‘पाव तले की दूब’ में सुदीप्त आदि गैर-आदिवासी पात्रों की केंद्रीय समस्या आदिवासी अंचल में हो रहे विकास के खेल का विरोध है , और वो भी आदिवासियों को साथ लेकर । यह विरोध कोरा नहीं , इसमें जनखदान का विकल्प ही नहीं , आदिवासी कोटे पर गैर-आदिवासी को नौकरी देने का कड़ा विरोध और झारखंड आंदोलन में सक्रिय भागीदारी भी है।
दूसरी ओर कुछ ऐसे पूंजीपति, राजनेता, माफ़िया , ठेकेदार , पुलिस आदि गैर-आदिवासी हैं जिन्होंने अपने लालच के लिए आदिवासियों की जीवन को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है । आदिवासियों के अरण्य संस्कृति को इन्होंने बेरहमी से नष्ट किया है । ऐसे में इन शोषक दिकूओं को देखकर सामान्य आदिवासियों के मन में भय, घृणा आदि भावों का उठना बिल्कुल स्वाभाविक है। यही कारण है कि ‘धार’ उपन्यास में कथाकार संजीव को तेजाब फैक्टरी के मालिक महेन्दर बाबू के दिकू गुंडो के आतंक से भयभीत आदिवासी समाज का चित्रण करना पड़ता है , वे लिखते है – ‘‘दिकू आए हैं दिकू !’’ बाँसगड़ा में खलबली मच गई। / ‘‘अब फैटरी चालू करा के मानेंगे ।’’ / ‘‘दिकू आए हैं दिकू !’’ माताएँ रोते हुए बच्चों को डरातीं , ‘‘रोएगा तो उठा ले जाएगा।’’ / ‘‘दिकू आए हैं दिकू !’’ औरतें मर्दो से फुसफुसातीं , ‘‘अब हमारी बहन-बेटियों की खैर नहीं ।’’12 यह खलबली निरंतर शोषण की चक्की में पिसते आदिवासियों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।
गैर-आदिवासियों द्वारा तैयार विकास के मानदंड आदिवासियों के लिए अभिशाप बन गये हैं ।फलस्वरूप आदिवासी और गैर-आदिवासी एक दूसरे के विरोधी होते जा रहें हैं । सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के नाम पर जहाँ सहयोग और समन्वय की भावना का विकास होना चाहिए था, वहाँ ये दोनों परस्पर विरोधी रास्ता अपनाने लगे हैं। संजीव के शब्दों में कहें तो – ‘‘दरअसल द्वन्द्व यहाँ है – दो संस्कृतियाँ, दो दुनियाएँ, जो एक-दूसरी की पूरक और सहायक हो सकती थीं, अफसोस एक-दूसरे के खिलाफ़ खड़ी कर दी गई हैं ।’’13 ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन दोनों संस्कृतियों को लड़ाकर, कौन अपनी संस्कृति स्थापित करना चाहता है ? वह कौन सी संस्कृति है ? जो आदिवासियों से उनकी सहअस्तित्व, समता, सामूहिकता, सहजीविता, सहभागिता और सामंजस्य के दर्शन को और गैर-आदिवासी से उनकी वसुधैव कौटुम्बकम की संस्कृति को भुलने पर मजबूर कर रहा है । वह संस्कृति है बाजारवाद की संस्कृति , जो पूरे संसार को बाजार और मनुष्य को उपभोक्ता में तब्दील करना चाहती है , जहाँ मानवीय संवेदना के लिए कोई स्थान नहीं है । यहाँ सिर्फ एक ही सिद्धांत चलता हैं – बिज़नेस इस बिज़नेस । ऐसे में आदिवासी और गैर-आदिवासी आदि सारे विवाद भूलकर दोनों को एकसाथ आदमखोर-बाजारवाद की संस्कृति के विरूद्ध डट कर खड़ा होना होगा , अगर डट कर खड़े नहीं हुए , तो आपके पास इंसानियत की मौत का तमशा देखने के सिवा कोई विकल्प नहीं रहेगा ।
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01. संजीव,पाँव तले की दूब, वाग्देवी प्रकाशन,बीकानेर,2013, पृ. 46.
02. https://www.facebook.com/AdivasiLiterature/photos/a.159734160887444.1073741828.159723914221802/ 160229804171213/?type=3&permPage=1.
03. http://viewpointjharkhand.com/?p=23331
04. संजीव , सावधान ! नीचे आग है , राधाकृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2000 , पृ. सं. - 43
05. संजीव , सावधान ! नीचे आग है , राधाकृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2000 , पृ. सं. 43
06. संजीव , धार , राधाकृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2011 , पृ. सं. 106
07. संजीव, पाँव तले की दूब , वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, 2013, पृ. 14
08. संजीव , सावधान ! नीचे आग है , राधाकृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2000 , पृ. सं. 49
90. संजीव , धार , राधाकृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2011 , पृ. सं. 36
10.संजीव , धार , राधाकृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2011 , पृ. सं. 54
11. (2011https://www.facebook.com/AdivasiLiterature/photos/a.159734160887444.1073741828.159723914221802/
279352562258936/ type=3&permPage=1
12. संजीव , धार , राधाकृष्ण प्रकाशन , नयी दिल्ली , 2011 , पृ. सं. 56
13. संजीव,पाँव तले की दूब, वाग्देवी प्रकाशन,बीकानेर,2013, पृ. 40
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सुनील कुमार साव
सहायक प्रबंधक( राजभाषा),एम एस टी सी लि. तथा शोध-छात्र (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
पता – 10, एस. पी. बैनर्जी रोड,आलमबजार ,
कोलकाता - 700035 मो. - 09432202321