मुक्तिबोध के पाठकों की
समस्याएँ
- सुनील कुमार साव
लेखन एक लड़ाई है,
अंधेरे से मुक्ति की लड़ाई। केवल अपनी मुक्ति नहीं, जन-जन की मुक्ति । इस लड़ाई में लेखक आजीवन अंधेरे
से जूझता रहता है , मगर हार नहीं मानता । यही अपराजेय भावना
लेखक को अंधेरे से लगातार लड़ने की प्रेरणा देता है। इस मुक्ति-संग्राम में लेखक आत्मोत्सर्ग तक करने से पीछे नहीं हटता , क्योंकि वह जानता है; उसका आत्मोत्सर्ग जन-जन को अंधेरे से मुक्ति दिला सकता है ।
आदिम युग से तकनीकी युग तक लेखन
जारी है, शिला-लेख से ब्लॉग लेखन तक |
लेखन के विकास के साथ-साथ पठन के क्षेत्र में
भी परिवर्तन हुआ है। जैसे-जैसे लेखन की मात्रा बढ़ी है ,
वैसे-वैसे पढ़ने की क्षमता भी घटी है।
फलस्वरूप अध्ययन-मनन-प्रवचन -प्रयोग का दायरा संकुचित होता जा रहा है | हद तो तब
हो गई , जब 'किताब कैसे पढ़ी जाए'1 विषय पर भी व्यंग्य लिखा जाने लगा है।
आज हिन्दी फ़िल्मों का बाजार 500 करोड़ तक जा पहुँचा
है।2 स्टार प्लस के सीरियल्स टी. आर.
पी. के नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं।3
हिन्दी एफ. एम. चैनेल्स का दायरा हमारे
जीवन में तीव्रता से बढ़ रहा है । अखबारों में पाठकों की संख्या बढ़ाने की होड़-सी
लग गई है।4 विश्वकप के बाद प्रीमियर लीग और सुपर लीग की खेल
प्रतियोगिताएँ भी हिंदी में प्रसारित होने लगी है। फेसबुक , वॉट्स-ऐप , ट्विटर आदि सोशल साईट्स पर भी युवा पीढ़ी हिंदी
में गुफ़्तगू करते हुए, थकते नहीं । ऐसे में दैन्दिन व्यस्तता को त्यागकर कितने
लोग साहित्य पढ़ते हैं ? और साहित्य में भी कितने लोग
मुक्तिबोध के साहित्य को पढ़ते के लिए समय निकाल पाते है ? इसके
बावजूद चाहे मुक्तिबोध हो या कोई और , लेखक कभी नहीं भूलता की उसकी शक्ति पाठक है
। जिसे स्पष्ट करते हुए देवेन्द्र सिंह लिखते हैं – ‘‘सोचें
, हम लिखने वालों की शक्ति कहा है ? सेनापति की शक्ति जैसे
सेना में निहित होती है , नेता की जनता में ,कप्तान की टीम में , वैसे ही लेखक की शक्ति पाठक में है।’’5 यही कारण है कि लेखक की सार्थकता
साहित्य से पाठक को जोड़ने में हैं ।
मुक्तिबोध का नाम आते ही
अधिकांश पाठक तनावग्रस्त हो जाते हैं। उनके साहित्यास्वादन में बाधा उत्पन्न हो
जाती है । वे खिन्नता का अनुभव करते हुए , मुक्तिबोध से
निराला और नागार्जुन को श्रेष्ठ और सुपाठ्य बताने लगते हैं । एक बार जब मन में बैठ
जाता है कि मुक्तिबोध का काव्य कठीनतम है तो जीवन-भर हम
मुक्तिबोध को दूर से ही प्रणाम करने के अभ्यस्त हो जाते हैं ।
ऐसा नहीं है कि यह समस्या केवल
सामान्य पाठक तक ही सीमित है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में सह्रदय पाठक भी इस
समस्या से जूझ रहे थे । यही कारण है कि मुक्तिबोध की कविता में नंददुलारे वाजपेयी
को हाहाकार6, शमशेर बहादुर सिंह को आधुनिक
यथार्थ कथा का भयानकतम अंश7, रामविलास शर्मा
को असुरक्षित जीवन की कविता8 , त्रिलोचन
शास्त्री को दु:ख, त्रास,वैमनस्य, दुर्नीति आदि का यथातथ्य अनुभव करानेवाले9,
नामवर सिंह को आत्मसंघर्ष के कवि10, कुँवर नारायण को समकालीन जीवन के भयानकतम अंश11,
श्रीकांत वर्मा को मनुष्य के आत्म-संहार की
भयानक और आक्रामक तस्वीरें12 , केदारनाथ
सिंह को भाषा का अजनबीपन13, अशोक वाजपेयी
को भयानक ख़बर का कवि14 आदि विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं । यह
विविध रूप सामान्य पाठकों से विशिष्ठ पाठकों तक की समस्याओं की ओर ध्यान केंद्रित
करते हैं , जिन्हें नंदकिशोर नवल आदि मुक्तिबोध के परवर्ती
आलोचकों ने बखूबी समझा है ।
मुक्तिबोध की काव्य-यात्रा भी अजीब है, जिन्हें जीते-जी पाठकों, प्रकाशकों तथा समकालीन साहित्यकारों ने
हासिये का लेखक माना; वहीं मरने के बाद हिंदी साहित्य के
मूर्धन्य साहित्यकार माने जाने लगे । इस असंगति को स्पष्ट करते हुए,नंदकिशोर नवल लिखते हैं- ''एक समय था कि वे सिर्फ 'तार सप्तक' के एक कवि के रूप में जाने जाते थे ।फिर
वह समय आया जब वे सफ़ल नहीं, बल्कि एक सार्थक कवि के रूप में
एकाध विद्वान की दृष्टि में आयें । 1964 में उनकी मृत्यु हुई
और उसी वर्ष उनका भारी-भरकम कविता संग्रह 'चाँद का मुँह टेढा है' प्रकाशित हुआ । उसके बाद ऐसा
लगा कि वे स्वयं अपने कृतित्व छेक कर खड़े थे और अब उनके उसके सामने से हट जाने से
उसका प्रकाश सम्पूर्ण हिन्दी जगत पर विकीर्ण हो उठा है। देखते-देखते मुक्तिबोध युवा पीढी के ही आदर्श कवि नहीं हो गये, उन्हें निराला के बाद दूसरा वैसा महत्वपूर्ण कवि माना गया ।''15 ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि वे
कौन से कारण थे ? जिन्होंने मुक्तिबोध को जीते-जी बीस वर्ष के लंबे रचनाकाल में कभी भी महत्वपूर्ण लेखक के रूप में
प्रतिष्ठित नहीं हो नहीं दिया | इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए,
नामवर सिंह लिखते हैं - ''इतना समर्थ कवि बीस
वर्षो की काव्य साधना के बाद भी सहृदयों में प्रिय नहीं हो सका | यह प्रश्न मेरे मन में बराबर उठता रहा है और बार-बार
विचार काव्य-शिल्प पर जा कर अटक जाता है।''16 अर्थात शिल्प ही वह कारण है , जो मुक्तिबोध को सहृदय पाठकों तक पहुँचने से रोकता है ।
किसी भी कृति में शिल्प का
महत्व अंतर्वस्तु के महत्व से बिल्कुल कम नहीं होता है, क्योंकि
अंतर्वस्तु तब तक सफ़ल नहीं माना जा सकता है, जब तक हम उसे
शिल्प का सफ़लतम ढांचा नहीं प्रदान करते हैं। यह शिल्प और अंतर्वस्तु का संतुलन ही
है, जो किसी रचना को कालजयी बनाता है। मुक्तिबोध तो कालजयी
हैं, और रहेंगे। परंतु उनके पाठकों के समक्ष शिल्प संबंधी
दुरूहता भी रहेगी।
नामवर सिंह ने मुक्तिबोध के
काव्य शिल्प में कई अवरोध देखे हैं। उनके अनुसार मुक्तिबोध के काव्य में आत्म-संवाद शैली17, नाटकीयता का अभाव18
, प्रलंबित वाक्य विन्यास वाली दमतोड़ लय19,
एक बिम्ब को समस्त संभावनाओं तक खींचना20,
परस्पर विरोधी बिम्बों का प्रयोग21, अत्यधिक संक्षेपण22 आदि शिल्प संबंधी कई अवरोधक है। आगे
कुँवर नारायण ने मुक्तिबोध के काव्य में अनुकूल फार्म का अभाव23,
भाषा में छायावादी किस्म का फैलाव और उलझाव24 तथा
त्रिलोचन शास्त्री ने काव्य रू़ढ़ियों के अभाव25 आदि शिल्प
संबंधी कई अवरोधकों का उल्लेख किया है । वस्तुत: यह कहा जा सकता
है कि मुक्तिबोध की काव्य और पाठक के बीच शिल्प संबंधी एकाधिक बाधाएँ मौजूद है ,
जिन्हें पार किए बिना मुक्तिबोध को समझना बहुत मुश्किल है |
यहाँ ध्यान देने की बात है
कि मुक्तिबोध के साहित्य और उनके पाठकों की बीच केवल शिल्प ही बाधक है या
अंतर्वस्तु भी, तो हम पायेंगे कि मुक्तिबोध के साहित्य का
अंतर्वस्तु भी अपनी भयावह सच्चाई के कारण पाठक से दूर हो जाता है । मुक्तिबोध के
साहित्य की भयावहता को स्पष्ट करते हुए श्रीकांत वर्मा लिखते है ''समकालीन मनुष्यता का यथार्थ सचमुच ही इतना भयावह है कि उसे देख कर आदमी
अंधा हो सकता है, संबोधित कर गूँगा हो सकता है और उससे
साक्षात्कार करते हुए आत्मघात कर सकता है ।''26 ऐसे मे कोइ साहसी पाठक ही होगा ; जो ऐसे भयानक
यथार्थ का साक्षात्कार करना स्वीकार कर सकता है ।
हिंदी में ''एक लंबे अर्से तक कविता आनन्दित और आह्लादित करने की वस्तु समझी जाती रही
है, और कुछ कवि तथा अनेक पाठक आज भी इस परंपरा को निभाए चल
रहे हैं ।''27 फलस्वरूप
हिन्दी कवि समकालीन यथार्थ की भयावहता को उजागर करने से इंकार करते है। जिसे
स्पष्ट करते हुए श्रीकांत वर्मा लिखते है '' गूँगे और अंधे
हो जाने के भय से हिन्दी की 'यशस्वी' कवि-पीढ़ी ने जिस यथार्थ से साक्षात्कार करने से इंकार किया , मुक्तिबोध ने उसे सम्वाद योग्य बनाया ।''28 ऐसे में मुक्तिबोध सचमुच तारीफ़ के काबिल हैं । समकालीन जीवन की भयावहता
को सार्थक अर्थों में बयान करने में मुक्तिबोध अतुलनीय है ।
शमशेर बहादुर सिंह, मुक्तिबोध की रचनात्मकता के उन पारखियों में से एक हैं , जिन्होंने मुक्तिबोध की जनवादी चेतना को सर्वप्रथम व्याख्यायित किया |
प्रारंभिक पारखियों में से एक होने पर भी उन्हें मुक्तिबोध के
साहित्य के पाठकीय अवरोधों से संघर्ष करना पड़ा। यह संघर्ष केवल रूप और अंतर्वस्तु
तक सीमित नहीं था | शमशेर पाठकीय अवरोधों के नवीन स्तरो का
भी उल्लेख करते हैं, जिसे स्पष्ट करते हुए वे लिखते है -
'' मुक्तिबोध के साथ मेरी समस्या होती है (अकसर
ही पाठकों की होती है; मैं भी एक साधारण पाठक ही हूँ)
अव्वल तो पढ़ने की ! (ईमानदारी की बात)
रचना की दीर्घकाय विराटता हताश करती है। ए ग्रिम रियलिटी; अंदर-बाहर सब ओर से । वस्तु और शिल्प रूप और
अंतरात्मा, रचना-प्रक्रिया और पाठक की प्राथमिक
प्रतिक्रिया सबमें एक अजाब ग्रिमनेस । मैं बचकर कहा जा सकता हूँ । घिर ही जाता हूँ
, फँस ही जाता हूँ।''29 ऐसे में मुक्तिबोध के सामान्य पाठक की क्या हालत हो सकती है ? यह अवश्य चिंता का विषय है ।
मुक्तिबोध की कविताओं का
सम्पादन करते हुए त्रिलोचन शास्त्री उनके काव्य में शिल्प के अलावा लेखकों द्वारा
पाठकों को प्रदान की जाने वाली कई सुविधाओं की कमी की ओर भी इशारा करते हैं |
जिसका उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं -''उनकी
कविताओं में व्याख्या का तत्व भी घुला मिला रहता है। व्याख्यात्मक कविताएँ पाठकों
को थकाती हैं । ..... मुक्तिबोध पाठक की मान्यताओं को भी
ध्यान में नहीं लाते । ..... मुक्तिबोध उस स्वभाव के कवि है,
जो पाठक को सावधान देखना पसंद करते हैं ।''30 ऐसे में पाठक अपनी दैन्दिन व्यस्ताओं
में मुक्तिबोध जैसे साहित्यकार को क्यों पढ़े ? जहाँ पाठकीय
उपेक्षा का स्तर सर्वोपरि हो । आखिर कितनी व्याख्याएं पढ़ी जा सकती है ? आखिर लेखक के साहित्य को पढ़ते समय कितने लोग उनकी मान्यताओं को पढ़ते-पढ़ाते हैं ? आखिर कब तक सावधान रहकर एकरसता से ऊब न
हो ?
इसी समस्या से दो-चार होते हुए केदारनाथ सिंह मुक्तिबोध की द्विभाषिकता की समस्या (घर में मराठी और साहित्य में हिंदी) को सामने लाते है | इस रचनात्मक अंतराल को पाटने में मुक्तिबोध सफ़ल नहीं हुए, जिसका उल्लेख करते हुए केदार नाथ सिंह लिखते हैं - ''उनकी घर की भाषा और कविता की भाषा का द्वन्द् उनकी पूरी कविता की बनावट
में एक अजीब-सा रचनात्मक अजनबीपन पैदा करता है | यह अजनबीपन उनकी कविता में परिचित शब्द-समूह और पूरे
वाक्य विन्यास को अनेक झटके देता है।''31 इस तरह भाषिक अजनबीपन भी मुक्तिबोध के पाठक की लिए अवरोध का कार्य करते
हैं ।
वस्तुतः इतने पाठकीय अवरोध,
इतनी भयावहता, इतनी एकरासता, इतनी शिल्पगत अनगढ़ता , इतना भाषिक अजनबीपन आदि होने
के बावजूद आख़िर मुक्तिबोध के साहित्य में ऐसा क्या है ? जो
लगातार पाठकों को अपनी ओर खिंचता रहता है। आओ , बार-बार आओ , मुक्तिबोध से मुक्ति का बोध पाओ ।
ऐसे में प्रश्न उठना
स्वाभाविक है कि मुक्तिबोध को कैसे पढ़ा जाए ? या मुक्तिबोध
को पढ़ते समय कौन-कौन-सी सावधानियाँ
बरतनी चाहिए ? या मुक्तिबोध के साहित्य को ग्रहण करनेवाले
पाठक की क्या योग्यताएं होनी चाहिए ?
मुक्तिबोध के पाठकों की
योग्यताओं की तलाश में उनके साहित्य के पारखियों के पास ही जाना चाहिए | इस क्रम में सबसे पहले हम शमशेर बहादुर सिंह के माध्यम से यह जानने का
प्रयास करते हैं कि वे मुक्तिबोध को कैसे पढ़ना उचित समझते हैं। उनका मानना है कि ''मुक्तिबोध की कविता को किसी राज़दाँ की बातों की तरह सँभल-सँभल कर , सोच-सोच कर ,
बल्कि कभी-कभी दोहरा-दोहरा
कर पढ़ना चाहिए ।''32 अर्थात एक बार पढ़कर भूलनेवालों के लिए मुक्तिबोध का साहित्य नहीं है ।
मुक्तिबोध का सच्चा पाठक वही हो सकता है, जो उसे सावधानी से
ग्रहण करने के लिए तत्पर हो । यही कारण है कि एक बार मुक्तिबोध को ''पढ़ लेने और अर्थ और भाव-व्यंजनाएँ हृदयंगम कर लेने
के बाद कविता ह्रदय पर, चेतना पर , हावी
हो जाती है। आप मुक्तिबोध के चित्रों के पैटर्न समझ लेने के बाद उन्हें उम्र भर
नहीं भूल सकते |''33
अर्थात एक बार हृदयंगम करने के बाद मुक्तिबोध अविस्मरणीय हो जाते हैं ।
मुक्तिबोध को सरसरी निगाह से आनंदमग्न
होकर नहीं पढ़ा जा सकता है। उन्हें समझने के लिए गंभीर अध्ययन की आवश्यकता पड़ती
है। तभी मुक्तिबोध के साहित्य को आत्मसात करना संभव हो सकता है । इसी तथ्य को
स्पष्ट करते हुए कुँवर नारायण लिखते है- ''वैसे मुक्तिबोध की कविताएं अपने ढंग से भरपूर प्रभाव छोड़ती है ,बशर्ते कि पाठक में वह लंबा धैर्य हो, जिसकी माँग
उनकी कविताओं की बनावट करती है ।''34 कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि धैर्यपूर्वक अध्ययन से मुक्तिबोध के साहित्य
को समझा जा सकता है ।
संस्कृत का एक बहु-प्रचलित श्लोक है 'श्रद्धावान लभ्यते ज्ञानम्' अर्थात ज्ञान के प्रति
श्रद्धाभाव रखनेवाला ही उसे ग्रहण कर सकता है । अस्थिर चित वाले को ज्ञान की
प्राप्ति नहीं हो सकती है । मुक्तिबोध के साहित्य के साथ भी कुछ ऐसा ही है,
तभी तो त्रिलोचन शास्त्री को लिखना पड़ा कि - ''मुक्तिबोध पाठक को अपने विश्वास में लेना चाहते हैं , उनकी रचना का प्रकार ऐसा है कि दुचित्ता पाठक उसे ग्रहण नहीं कर सकता।
पूरी तरह कवि के समानान्तर चल सकने वाला पाठक ही कवि का प्रिय साथी बन सकता है।
ऐसे पाठक को ही धीरे-धीरे प्रतीति होगी कि कवि हमें क्या दे
रहा है ।''35 अर्थात
स्थिर चित्त वाले पाठक ही मुक्तिबोध के सच्चे पाठक बन सकते हैं।
सच कड़वा होता है और कड़वी चीजों से लोग
परहेज करते हैं | यही
कारण है कि साहित्य में यथार्थ की कांट-छांट की परंपरा चल
पड़ी है । अब यथार्थ को यथार्थ रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाता है | उसे पाठक और बाज़ार की रूचि के अनुसार तैयार किया जाता है, परंतु मुक्तिबोध ऐसी कांट-छांट का विरोध करते ,
जिसे स्पष्ट करते हुए त्रिलोचन शास्त्री लिखते हैं -'' मुक्तिबोध पाठक को उद्बोधित नहीं करते । वे चाहते हैं कि पाठक स्वयं
उद्बुद्ध हो। वह अपनी आँखों सत्य को देखे और वास्तव को वास्तव रूप में जाने |
ज़ाहिर है कि ऐसी स्थिति में पाठक अथवा विचारक अनेक बार बेचैनी का
अनुभव करेगा यह मुक्तिबोध का अभिप्रेत है, क्योंकि बेचैनी
अगर क्रिया शक्ति है तो कुछ कराके रहेगी ।''36 इस तरह मुक्तिबोध अपने पाठक को यथार्थ दिखाकर उन्हें बेचैन करते हैं ,
ऐसे में जिन्हें सच का सामना करने से भय लगता हो , वे मुक्तिबोध के पाठक नहीं बन सकते हैं।
अब सवाल यह है कि क्या मुक्तिबोध अपने
साहित्य की कठिनता से अवगत नहीं थे ? क्या उन्हें पाठकीय रुचि का ज्ञान नहीं था ?
क्या मार्क्सवादी होकर भी वे सरल भाषा का प्रयोग करने में असमर्थ थे
? या यह सब जानने के बावजूद मुक्तिबोध की दृष्टि में उनका
साध्य बड़ा था उस साध्य तक पहुँचने का साधन नहीं ।
मुक्तिबोध अपने साहित्य की कठीनता से अवगत थे, परंतु इससे वे कभी
लक्ष्यच्युत नहीं हुए । उन्हें जनता के साहित्य की सच्ची पहचान थी , जिसे स्पष्ट करते हुए , वे लिखते है - '' ‘जनता का साहित्य’ का अर्थ जनता को तुरंत ही समझ में
आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं | अगर ऐसा होता तो किस्सा
तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते ।''37 परंतु ऐसा नहीं है, साहित्य नौटंकी और किस्सा तोता-मैना से बड़ी चीज़ है
।
ऐसे में यह जानना भी जरूरी है
कि मुक्तिबोध की दृष्टि में उनके साहित्य को समझनेवाले पाठक की क्या योग्यता होनी
चाहिये ? वह पाठक किस योग्यता के सहारे मुक्तिबोध के साहित्य
को समझने में सफ़ल हो सकता है । इसे स्पष्ट करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं -
''जो लोग 'जनता का साहित्य' से यह मतलब लेते हैं कि वह साहित्य जनता के तुरंत समझ में आये , जनता उसका मर्म पा सके , यही उसकी पहली कसौटी है -
वे लोग यह भूल जाते हैं कि जनता को पहले सुशिक्षित और सुसंस्कृत
करना है ।''38 अर्थात
जनता का साहित्य पढ़ने वाले पाठक को शिक्षित नहीं, सुशिक्षित
और सुसंस्कृत होना आवश्यक है ; तो फिर बिना सुशिक्षित और
सुसंस्कृत हुए , मुक्तिबोध का साहित्य कैसे समझ आ सकता है ?
हमारी शिक्षा प्राथमिक , माध्यमिक और विश्वविद्यालयी
स्तरों में विभाजित है | ऐसे में यह कहना कि प्राथमिक स्तर
का साहित्य ही महान है और विश्वविद्यालयी स्तर का साहित्य नहीं ,तो यह केवल अपनी अल्पज्ञता का प्रदर्शन ही नहीं है , ब्लकि जनता से गद्दारी भी है । जिसे स्पष्ट करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं - ''कुछ साहित्य तो निश्चय ही प्रारंभिक शिक्षा के
अनुकूल होगा , तो कुछ सर्वोच्च शिक्षा के लिए | प्रारंभिक श्रेणी के लिये उपयुक्त साहित्य तो साहित्य है, और सर्वोच्च श्रेणी के लिये उपयुक्त साहित्य जनता का साहित्य नहीं है;
यह कहना जनता से गद्दारी है | ''39 ऐसे में स्पष्ट है कि प्रत्येक साहित्य का अपना स्तर होता है | प्रारंभिक स्तर के साहित्य से सर्वोच्च स्तर के साहित्य की तुलना करना
व्यर्थ है | वस्तुत: यह भी कहा जा सकता
है कि मुक्तिबोध का साहित्य सर्वोपरि शिक्षा का साहित्य है , उसे समझने के लिए पाठक को भी उस स्तर तक पहुँचना चाहिए ।
इस तरह हम कह सकते हैं कि मुक्तिबोध का पाठक
वही हो सकता है, जो
सचेतन , विचारशील , धैर्यवान , क्रियाशील , सुशिक्षित , सुसंस्कृत
आदि हो । इन गुणों से संपन्न पाठक ही मुक्तिबोध को सहज रूप में ग्रहण कर सकता है ।
ऐसे में हमें उन सारे पाठकों (जो मुक्तिबोध के साहित्य को
दुरूह मानते है ) यह पूछना चाहिए कि आप में मुक्तिबोध के
पाठक बनने के कितने गुण मौजूद हैं ? क्या आपने कभी सोचा है ? अगर नहीं सोचा है तो अभी सोचिए , क्योंकि जब जागो तभी सवेरा माना गया है।
इस तरह आरोप लगानेवाले सजग पाठकों को आत्म-निरीक्षण का
बेहतरीन मौका मिल सकता है |
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1. नवल ,हँसते हँसाते ,जीवनलता ,कोलकाता , 2007, पृ -07
2. http://en.wikipedia.org/wiki/ List_of_highest-grossing_Indian_films.
3. http://www.tellytrp.in
5. सिंह ,देवेन्द्र
,हम किसके लिए लिखते हैं
?, अभिधा ,अरविंद कुमार(सं.) , जनवरी-जून-जुलाई-दिसंबर
(संयुक्तांक-13-14) , 2014 ,पृ -90.
6. वाजपेयी ,नंददुलारे ,
गजानन माधव मुक्तिबोध , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) , नीलाभ प्रकाशन ,
इलाहाबाद ,2002, पृ. -17
7. सिंह, शमशेर बहादुर, मुक्तिबोध
और उनका काव्य , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) , नीलाभ प्रकाशन ,
इलाहाबाद ,2002, पृ. -21.
8. शर्मा,रामविलास ,मुक्तिबोध
का आत्मसंघर्ष और उनकी कविता , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ
प्रकाशन , इलाहाबाद ,2002, पृ. -49.
9. शास्त्री,त्रिलोचन, मुक्तिबोध
का काव्य-वैशिष्ट्य , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ प्रकाशन ,
इलाहाबाद ,2002, पृ. -55.
10. सिंह,नामवर, आत्मसंघर्ष के कवि : गजानन मुक्तिबोध
, मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ प्रकाशन , इलाहाबाद ,2002, पृ. -64.
11. कुँवरनारायण,
मुक्तिबोध की कविता की बनावट , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ
प्रकाशन , इलाहाबाद ,2002, पृ. -79.
12.त्रिपाठी,
अरविंद(सं.),श्रीकांत वर्मा रचनावली,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,1995,पृ. - 86
13. सिंह ,केदारनाथ,
कालबद्ध और पदार्थमय , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ प्रकाशन ,
इलाहाबाद ,2002, पृ. -107.
14. वाजपेयी,अशोक, भयानक
ख़बर की कविता , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ प्रकाशन , इलाहाबाद
,2002, पृ. -121.
15. नवल, नंदकिशोर(सं.),
मुक्तिबोध कवि-छवि(भूमिका) ,नीलाभ प्रकाशन , इलाहाबाद ,2002, पृ. -07.
16,17,18,19,20,21.
सिंह,नामवर, आत्मसंघर्ष के कवि : गजानन
मुक्तिबोध , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ प्रकाशन , इलाहाबाद
,2002, पृ. -72.
22. उपरोक्त , पृ. -73.
24. कुँवरनारायण,
मुक्तिबोध की कविता की बनावट , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ
प्रकाशन , इलाहाबाद ,2002, पृ. -76.
25. उपरोक्त , पृ. -82.
26. शास्त्री,त्रिलोचन,
मुक्तिबोध का काव्य-वैशिष्ट्य , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ
प्रकाशन , इलाहाबाद ,2002, पृ. -54.
27. त्रिपाठी,
अरविंद(सं.),श्रीकांत वर्मा रचनावली,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,1995,पृ. – 86.
28. उपरोक्त ,पृ. – 87.
29. सिंह, शमशेर बहादुर,
मुक्तिबोध और उनका काव्य , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) , नीलाभ प्रकाशन
, इलाहाबाद ,2002, पृ. -21-22.
30. शास्त्री,त्रिलोचन,
मुक्तिबोध का काव्य-वैशिष्ट्य , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ
प्रकाशन , इलाहाबाद ,2002, पृ. -54.
31.सिंह ,केदारनाथ,
कालबद्ध और पदार्थमय , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ प्रकाशन ,
इलाहाबाद ,2002, पृ. -108.
32.मुक्तिबोध,गजानन माधव,
चाँद का मुँह टेढ़ा है (भूमिका- शमशेर बहादुर सिंह),भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन,कलकत्ता,1964,
पृ. -24.
33. सिंह, शमशेर बहादुर, मुक्तिबोध
और उनका काव्य , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) , नीलाभ प्रकाशन ,
इलाहाबाद ,2002, पृ. -22.
34. कुँवरनारायण, मुक्तिबोध की कविता
की बनावट , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ प्रकाशन , इलाहाबाद
,2002, पृ. -74-75.
35. शास्त्री,त्रिलोचन, मुक्तिबोध का
काव्य-वैशिष्ट्य , मुक्तिबोध कवि-छवि , नंदकिशोर नवल(सं.) ,नीलाभ प्रकाशन ,
इलाहाबाद ,2002, पृ. -55.
36. उपरोक्त
37.जैन ,नेमिचंद ,
मुक्तिबोध रचनावली ,भाग-5, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली, ,पृ. – 75.
38. उपरोक्त
39. उपरोक्त,पृ. -75-76.
..........................................................................................
सुनील कुमार साव
सहायक प्रबंधक( राजभाषा),एम एस टी सी लि. तथा शोध-छात्र (कलकत्ता विश्वविद्यालय)
पता – 10, एस. पी. बैनर्जी रोड,आलमबजार ,
कोलकाता - 700035 मो. - 09432202321